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कसायपाहुड २५
इन्द्रनन्दिने लिखा है कि गुणधरने गायासूत्रोको रचकर नागहस्ति और आर्यमक्षुके लिये उनका व्याख्यान किया और उन दोनोके पास यतिवृपभने उन गाथासूत्रोका अध्ययन किया और उनपर वृत्तिसूत्ररूप चूर्णिसूत्रोकी रचना की।
उक्त दोनो कथनोसे यही प्रमाणित होता है कि कपायप्राभृतके गाथासूत्र मौखिक ही प्रवाहित हुए। जब कि पट्खण्डागमके सूत्र पुस्तकवद्ध किये गये। अत आगमको सर्वप्रथम पुस्तकारूढ करनेके उपलक्ष्यमें हर्प मनाना उचित ही था।
इससे भी यही प्रतिफलित होता है कि कपायप्राभृतकी रचनाके समय आगमको पुस्तकारूढ करनेकी परिपाटी प्रचलित नही हुई थी। जवकि पखण्डागमके समय उसका प्रचलन हो चुका था। इससे भी पट्खण्डमसे कषायप्राभृतके पूर्ववर्तित्वका ही समर्थन होता है। अत गुणधर धरसेनसे पहले होने चाहिये । कषायपाहुड नाम और विपयवस्तुका स्रोत
कषायप्राभृत प्राकृतगाथासूत्रोमे निवद्ध है। इसको पहली गाथा मे बतलाया है कि पाँचवें पूर्वके दसवे वस्तु-अधिकारमें पेज्जपाहुड नामक तीसरा प्राभृत है, उससे यह कपायप्राभृत उत्पन्न हुआ है।
पीठिकामें पूर्वोके अन्तर्गत अधिकारोका परिचय कराते हुए बतलाया गया है कि प्रत्येक पूर्वमें वस्तुनामक अनेक अधिकार होते है और एक-एक वस्तु-अधिकारके अन्तर्गत बीस-बीस प्राभृताधिकार होते है । तथा एक-एक प्राभृताधिकारके अन्तर्गत चौवीस-चौबीस अनुयोगद्वार नामक अधिकार होते है । पाँचवे पूर्वका नाम ज्ञानप्रवाद है और उस ज्ञानप्रवादके अन्तर्गत वस्तु नामक वारह अधिकार है ।
और प्रत्येक वस्तु अधिकारके अन्तर्गत वीस-बीस प्राभृताधिकार है। उनमेसे दसवे वस्तु अधिकारके अन्तर्गत केवल एक तीसरे प्राभृतसे प्रकृत कपायप्राभृत रचा गया है । इससे पूर्वोके महत्त्व, वैशिष्टय और विस्तारका अनुमान किया जा सकता है । ___ कपायप्राभृतकी जयधवला टीकामे तीसरे पेज्जपाहुडका परिमाण सोलह हजार पदप्रमाण बतलाया है। उस प्राभृतरूपी महार्णवको गुणधराचार्यने एकसौ अस्सी मात्र गाथाओमें उपसहृत किया है। इससे गुणधराचार्यकी उस विपयकी १ 'एव गाथासूत्राणि पञ्चदशमहाधिकाराणि । प्रविरच्य ब्याचल्यो नागहस्त्यार्यमाभ्याम् ।
पाश्वे तयोर्डयोरप्यधीत्य मूत्राणि नानि यतिवृपभ । यतिवृपमनामधेयो बभूव शास्त्रार्य
निपुणमनि ॥- ता० २ 'पुचम्मि पचमम्मि दु उसमें वत्थुम्हि पाहुडे तदिए। पज्ज ति पाहुदम्मि दु ह्वटि
कमायाण पाहुट णाम ॥१॥-क-पा०, भा० १, पृ० १० । 'एद पेज्जदोसपाहुट सोलमपटसहम्मपमाण होत अमीढिमढमेत्तगाहाहि उवमधारिद ।' क. पा० भा० १ पृ० ८७ ।