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________________ ३९८ जैनसाहित्यका इतिहास जीव समास अधिकार तथा पट्खण्डागमके प्रथम सण्ड जीवद्वाणके सत्प्ररूपणा और द्रव्यपरिमाणानुगम नामक अधिकारोकी धवलाटीकाके आधार पर किया गया है । यह पहले लिख आये है कि धवलामे दि० पञ्चसग्रहकी बहुत-सी गाथाएं उद्धृत है और क्वचित् किन्ही गाथाओमे शाब्दिक अन्तर भी है। किन्तु जीवकाण्ड में सकलित इस प्रकारकी गाथाओका पाठ धवलासे मिलता है, पञ्चसग्रहसे नही । अत जीवकाण्डके सकलनमें धवलाकी मुख्यता जाननी चाहिये । पचसग्रहसे जीवकाण्डमें जो विशेषता है उसका दिग्दर्शन इस प्रकार है पञ्चसग्रहमें ३० गाथाओसे गुणस्थानोका कथन है किन्तु जी० का० मे ६८ गाथाओमें कथन है । उसमें बीस प्ररूपणामोका परस्परमे अन्तर्भावका कथन तथा प्रमादोके भगोका कथन पञ्चसग्रहमे विशेष है। पं०स० मे जीवसमासका कथन केवल ग्यारह गाथाओ मे है किन्तु जी० का ० में ४८ गाथाओमें है । उसमें स्थान, योनि, शरीरकी अवगाहना, और कुलोके द्वारा जीवसमासका कथन विस्तार से किया है । यह सब कथन प०स० मे नही है । तथा प०स०के इस प्रकरणकी केवल एक गाथा जी०का० मे है शेप सव कथन स्वतन्त्र है । पर्याप्तिका कथन प०स० में दो गाथाओमे है और जी०का० में ११ गाथाओमें । प०स०की दोनो गाथाएँ जी०का० में है । प्राणोका कथन प० स०में ६ गाथाओ में है और जी० का० मे ५ गाथाओंमें । इसमें प०स०की केवल दो गाथाएँ ली गई है । सज्ञाओकी पाचो गाथाएँ जी०का०में ले ली है केवल स्वा मियोका कथन जी० का ० में विशेष है । जी० का० के मार्गणाओके कथनमें एक वडी विशेषता यह है कि उसमें मार्गणाओ में जीवोकी सख्याका कथन भी किया गया है । यह कथन दि० प० स० में नही है । इन्द्रियमार्गणाके कथनमें पं० स० में एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि जीवोको बतलाया है ये जीव एकेन्द्रिय है ये द्वीन्द्रिय है । जी० का० में इसे छोड दिया है और प्रत्येक इन्द्रियके विपयका तथा इन्द्रियोमे लगे हुए आत्मप्रदेशोका कथन विस्तारसे किया है, यह कथन पं० स० में नही है । कायमार्गणाके कथनमें जी० का ० में प० स० से कई बातें विशिष्ट है । जैसे त्रसोका वासस्थान, निगोदिया जीवोसे अप्रतिष्ठित शरीर और स्थावर जीवोके शरीरका आकार । योगमार्गणामें भी इसी तरह कई विशिष्ट कथन है । कषायमार्गणाके कथनमें जी० का० मे शक्ति, लेश्या और आयुबन्धावन्धकी १ गा० १३९ - जी० का० ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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