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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ३८३ उन्होने चन्द्रप्रभचरितको प्रशस्ति में अपनेको अभयनन्दिका शिष्य बतलाया है। और ये अभयनन्दि नेमिचन्द्र गुरु ही होने चाहिये क्योकि कालगणनासे उनका वही समय आता है। अत अभयनन्दि इन सबमें जेठे तथा गुरु होने चाहिये । और वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और नेमिचन्द्र उनके शिष्य । नेमिचन्द्र सम्भवतया सबसे छोटे थे और उन्होने अभयनन्दि गुरुसे अध्ययन करनेसे पूर्व वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिसे भी अध्ययन किया था।
नेमिचन्द्रने वीरनन्दिको चन्द्रमाकी उपमा देकर सिद्धान्तरूपी अमृतके समुद्रसे उनका उद्भव बतलाया है। अत वीरनन्दि भी सिद्धान्त ग्रन्थोके पारगामी थे । उसी तरह इन्द्रनन्दिको तो नेमिचन्द्रने स्पष्ट रूपसे श्रुतसमुद्रका पारगामी लिखा है। उन्हीके समीप सिद्धान्त ग्रन्थोका अध्ययन करके कनकनन्दि ने सत्वस्थानका कथन किया था। उसी सत्व स्थानका सग्रह नेमिचन्द्रने गोम्मटसार कर्मकाण्डमें किया है।
इन्द्रनन्दिके सम्बन्धमें मुख्तार साहब ने लिखा है कि इस नामके कई आचार्य हो गये है। उनमेंसे ज्वाला मालिनीकल्पके कर्ता इन्द्रनन्दिने ग्रन्थका रचनाकाल श० स० ८६१ (वि०स० ९९६) दिया है। और यह समय नेमिचन्द्रके गुरु इन्द्रनन्दिके साथ बिल्कुल सगत वैठता है। किन्तु उन्होने अपनेको वप्प नन्दिका शिष्य बतलाया है। सभव है यह इन्द्रनन्दि बप्पनन्दिके दीक्षित हो, और अभयनन्दिसे उन्होने सिद्धान्त शास्त्रकी शिक्षा प्राप्त की हो ।
इस तरह विक्रमकी दसवी शताब्दीके उत्तरार्धसे लेकर ग्यारहवी शताब्दीके पूर्वार्ध तक सिद्धान्त ग्रन्थोंके ज्ञाताओकी एक अच्छी गोष्ठी थी। उनमेंसे सिद्धान्त विपयक रचनाये दो ही आचार्योंकी उपलब्ध है । वे है कनक नन्दि तथा नेमिचन्द्र।
१ 'मुनिजननुतपाद प्रास्तमिथ्याप्रवाद सकलगुणसमद्धस्तस्य शिष्य प्रसिद्ध ।
अभवदभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी स्वमहिमजितसिन्धु भव्यलोककवन्धु ॥३॥ भव्याम्भोजविवोधनोद्यतमते स्वित्समानविष
शिष्यस्तस्य गुणाकरस्य सुधिय श्री वीरनन्दीत्यभूत् ।'-चन्द्र० च० प्रश० । २ वर इदणदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्ध त ।
सिरिकणयणदिगुरुणा सत्तट्ठाण समुद्दिट्ठ ॥३९६||--कर्म का० । ३ पुरातन वा० सू०, प्रस्ता०, पृ० ७१-७२ । ४ 'अष्ट शतस्य (स) कषष्ठि प्रमाणशकवत्सरेष्वतीतेषु ।
श्रीमान्य खेटकटके पर्वण्यक्षयतृतीयायाम् ॥' -ज्वा० मा०, प्रश० ।