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कसायपाहुड : २३ वर्षमें क्रमश पाँच आचार्योका होना बतलाया है वे आचार्य है-अहंद्वलि, माधनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि । इनमेसे अहंद्वलिके विपयमै इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमे लिखा है कि उन्होने जैनधर्ममे मघोकी रचना की थी। जो मुनि शाल्मलिमहावृक्षके मूलसे पधारे थे उनमेसे कुछको 'गुणधर'' सज्ञा दी और कुछको 'गुप्त' नाम दिया। यदि ये 'गुणवर' नाम आचार्य गुणधरकी स्मृतिमे दिया गया हो तो स्पष्ट है कि गुणधराचार्य अर्हद्वलिमे पहले हो चुके थे। किन्तु चू कि गुणधर सज्ञा देनेका कोई कारण नहीं बतलाया गया, इसलिये इमपर विशेष जोर नहीं दिया जा सकता । फिर भी यह मज्ञा उपेक्षणीय भी नही है ।
प्रकृत विपयपर और भी प्रकाश डालनेके लिये हम धवला और जयधवलाको टटोलना होगा। वीरसेन स्वामीने गुणधरको वाचक और आर्यमक्षु तथा नागहस्तीको महावाचक लिखा है । और धवलाकी टीकामे वाचकका अर्थ पूर्वविद् किया है । जैसे गुणधर कपायप्राभृतके ज्ञाता थे, वैसे ही धरसन भी कर्मप्रकृतिप्राभूतक ज्ञाता थे । विन्तु फिर भी धरसेनको वाचक नहीं लिखा, इसका कारण क्या है ?
इसके समाधानके लिये हमे धवला और जयधवलाके प्रारम्भिक भागपर दृष्टि डालनी चाहिये। धवलाके प्रारम्भमे वीरसेन स्वामीने धरसेनको अष्टागमहानिमित्तका पारगामी लिखा है, किन्तु किसी पूर्व या उसके अशका ज्ञाता नही लिखा, पुष्पदन्त-भूतवलिको क्या पढाया, यह भी स्पष्ट नहीं किया--ग्रन्थ पढाया और ग्रन्थ समाप्त होगया। जव पुष्पदन्त सत्प्ररूपणाके सूत्रोकी रचना करके जिनपालितको भूतवलिके पास भेजते है तव उन्हे भय होता है कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका विच्छेद हो जायेगा । और उसपरमे यह अनुमान करना पडता है कि घरसेनने अपने शिष्योको महाकर्मप्रकृतिप्राभृत पढाया था और वह उसके ज्ञाता ये। आगे तो बीरसेनने स्पष्टरूपसे उन्हें महाकर्मप्रकृतिप्राभूतका ज्ञाता लिखा है। अब जयधवलाको देखिये। मगलाचरणके पद्यसे ही यह स्पष्ट होजाता है कि गुणधरने कपायप्राभृतका गाथा
१ ये शाल्मलीमहाद्रुममूलाग्रतयोऽभ्युपगतास्तेषु। कौश्चि गुणधरगशान काश्चिद् गुप्ता
यानकरोत् ।।९४॥ श्रुता० । २ 'अगमहाणिमिरापारण्ण'-बट्स०, भा०१, पृ० ६७ । ३. 'गथो पारद्धो गथो समाणिदो'-पृ० ७० । ४ महाकम्मपयटिपाहुटस्स वोच्छेदो होहदित्ति'-पृ० ७१ । ५. 'महाकम्मपडिपाहुडामियजलपवाहो धरसेणभडारय मपत्ती । भूतबलि पुप्फदनाण
महाकम्मपाटपाहुट सयल समाणिद। महाकम्मपयडिपाहुडमुवमहरिऊण छपडाणि
कयाणि । पट्स, पु. ९, पृ०५३।। ६ 'जेणिह कसायपाहुडमणेयणयमुज्जल अणतत्थ । गाहाहि विवरिय न गुणहरभडारय
वदे ॥६॥ क० पा० भा० १।