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२२ जनसाहित्यका इतिहास
का भय उपस्थित हो गया तथा उस बने सुने जी लिपिक करनी निता उत्पन्न हुई।
पर
किन्तु जगजानियाकी परम्परा नमान हो जानकवादी भय की सम्भावनाका होना हम नमनित पतीत नहाना, क्याकिं व पायप्रानृत और पट् मीरगना पूर्वा नाशिष्ट वन और पूर्वाकी विपिपराका जन्त पीरनिर्वाण था। उनके होनेपर परेवा जयष्टि पुत्राकी विच्छिन्न परम्पराका अन हा जानेपर भी गजान तीन भी नगी अधिक कालतक क्रमणीयमान अवस्थानमे नमान था । इतनं गुरो का विच्छिन्न पूर्वा अवशिष्ट गुमान होना
नाही हा गया हो गये।
भी
जगनाम ही नष्ट होना होना या प्रतीत नहीं होता। पीि यह स्पष्ट किया गया है कि गागविशेषना जान मे ही हो गया। बत उनके होनवे पन्नानुग ही उनको सुरक्षित गनेकी नाना का उत्पन्न होना स्वाभाविक
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फिर भी यत नरनागमय विक्रम गरी जनादीन प्रमाणा होता है और लगभग यही गमग (बी० नि० ९२०-६८९) ताम्वरी पट्टाव अनुसार नागहस्तीक आता है । और गुण के द्वारा निन गाया जाम मांग नागहस्तीको प्राप्त हुई थी, अत गुणनर जनदग ही उन पूर्वतीने नाहिये । वरसेन और नागहस्तीकी गमवालीनना भी गंभव प्रतीत होती है कि दोनों कर्मप्रतिप्राभृतके ज्ञाता थे। धरगनने कर्मप्रकृतिपाभूतका ज्ञान भूतबलितथा गुप्पदन्त को दिया, उन्होंने उगा जर पाण्ागमही बनना की । उगके पश्चात् कर्मप्रकृतिप्राभृतका विच्छेद होगया। टीकावार वीरगेन' स्वामीके अनुसार उगो कर्मप्रकृतिप्राभृता निदन अपने नृणिरोगे 'एना कम्पगडी' लिसकर यतिवृपमने भी किया है । यतिवृषभका नागहमी पागप्राभृतका जान प्राप्त हुआ था और नागहरती कर्मप्रकृति के विशिष्ट ज्ञाता थे । मत धरमैन और उनके शिष्य भूतबलि-पुष्पदन्त तथा नागहस्ती और उनके विष्य यतिवृपभ ऐसे समयमे हुए थे, जब कर्मप्रकृतिप्राभृत विच्छिन्न नहीं हो सका था । अत इनके मध्य में दीर्घकालका अन्तर सभव प्रतीत नही हाता । और ऐसी स्थितिमे आचार्य गुणधर अवश्य ही धरमेनके पूर्वकालिक प्रतीत होते ह ।
यह ऊपर लिख आये है कि नन्दिराधकी पट्टावलीमे लोहाचार्यके पश्चात् १२८
१ एसा कम्मपयटीमु । कम्मपयटीओ णाम विदिय पुव्यपनमवत्युपविट उत्यो पाहुर साणिदो अहियारो अस्थि ।' ज० च० प्र े० का०, पृ० ६५६७ |