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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ३७७ शतक नामके चतुर्थ प्रकरणमें भी उस वैशिष्टयके दर्शन स्थान-स्थानपर होते है। यद्यपि सव मूल कथन प्राकृत पञ्च स० के अनुसार है किन्तु वर्णनके क्रममें व्यतिक्रम है। प्रा०प० स० में मार्गणाओमें जीवसमास, जीवसमासोमें उपयोग, मार्गणाओमें उपयोग, जीवसमासोमें योग, मार्गणाओमें योग, मार्गणाओमें गुणस्थान, गुणस्थानोमें उपयोग, योग और प्रत्ययका क्रममे कथन है। किन्तु इस सं० १० स० मे मार्गणाओमें जीवसमास, गुणस्थान, उपयोग योगका कथन करके फिर जीवसमासोमें उपयोग और योग कथन है । तथा बन्धके कारणोके भेद प्रभेदोका कथन गद्य द्वारा स्पष्ट करते हुए वहुत विस्तारसे किया है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि डड्ढाने विपयको व्यवस्थित और सुस्पष्ट करनेका भी प्रयत्न किया है। मतभेद भी कही-कही है। जैसे गाथा ४१में जहाँ चौदह योग कहे है वहाँ श्लोक १२ में पन्द्रह योग कहे है । अमितगतिने भी श्लोक १० में पन्द्रह योग कहे है।
प्रा०प० स० के शतकमे गाथा ३२५ के द्वारा कहा गया है कि गुणस्थानोमें कहे गये प्रकृतिवन्धका स्वामित्व मार्गणाओमें भी लगा लेना। इस कथनका विवरण आगे भाष्य गाथाओंके द्वारा किया गया है । स०प० स० में गाथा ३२५ का रूपान्तर तो है किन्तु भाष्यगाथाओका नहीं है। अत यह सव कथन स०प० स० में नही है । यही पर प्रकृति बन्धको समाप्त कर दिया है। अमितगतिने भी ऐसा ही किया है। किन्तु नवम गुणस्थानमें जो प्रत्ययके भेद कहे है । डड्ढा ने तो प्रा०प० स० के अनुसार कहे है किन्तु अमितगतिने पृथक् ही कहे है ।
प्रा० ५० स० चौथे अध्यायमें नौवे गुणस्थानमें प्रत्ययोमे भेद इस प्रकार वतलाये है
सजलण तिवेदाण णव जोगाण च होइ एयदर ।
सढूण दुवेदाण एयदर पुरिसवेदो य ॥१९७।। अर्थात् नौवे गुणस्थानके सवेद भागमें चार सज्वलनकषायमें से एक, तीन वेदोमें से एक और नौ योगोमें एक होता है । नपुसक वेदका उदय व्युच्छिन्न हो जाने पर दो वेदोमेंसे एक वेदका उदय होता है और स्त्रीवेदका उदय व्युच्छिन्न हो जाने पर एक पुरुप वेदका उदय होता है ।
अत ४४३४९ = १०८,४४२४९ - ७२ और ४४१४९ = ३६ भग होते है इस तरह १०८ + ७२ + ३६ = २१६ कुल भग होते है । ये सवेद भागके भग हुए ।
चद् सजलण णवण्ह जोगाण होइ एयदरदोते । कोहूण माणवज्ज मायारहियाण एगदरगं च ॥१९८॥