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अन्य कर्मसाहित्य - ३६३ ७ वी गाथा है । तथा ३, ४, ५, भगवती आराधनामें हैं और उनकी सख्या क्रमश ३९, ३४, और ५६ है। गाथा न. ४ के पाठमें थोडा भेद है जो इसप्रकार है
सुत्त गणधरगथिद तहेव पत्तेय बुद्धकहिय च ।
सुदकेवलिणा कहिय अभिण्णदसपुन्विगविंद च ॥३४॥ श्वेताम्बर साहित्यमें वृहत्सग्रहिणी में गा० ३-४ पाई जाती है और उनका नम्बर १५३-१५४ है । तथा उसमें कहिय' आदिके स्थानमें सर्वत्र 'रइय' पाठ है।
इस तरह उक्त पाच गाथाओमें से फुटकर रूपमें कुछ गाथाए दोनो परम्पराओके साहित्य में मिलती है। किन्तु लगातार पाचो गाथाए इसी क्रमसे किसी ग्रन्थमें नही मिलती और इसलिए यह निर्णय करना अशक्य है कि चूर्णिकारने इन्हें अमुकग्रन्थ से उद्धृत किया है । ___ खोजते खोजते हमें ये गाथाए इसी क्रमसे एक अन्य ग्रन्थमें भी उद्ध त मिली। सिद्धसेन गणिकृत तत्वार्थ भाष्यकी टीका ( अ ८ सूत्र १० में) में ये गाथाए इसी क्रमसे उद्धृत हैं । केवल पाचवी गाथाकी प्रथम पक्तिके अन्तिम शब्द 'अत्थाण' के स्थानमें 'भावाणं' पाठ है।
परन्तु चौथी गाथा उद्धृत नही है उसके स्थानमें उसी आशयकी दो सस्कृत आर्याए इसप्रकार उद्धृत है'सूत्र तु प्रतिविशिष्टपुरुपप्रणीतमेव श्रद्धागोचर इति यथोक्तम्
अर्हत्प्रोक्त गणधरदृब्धं प्रत्येकबुद्धदृब्ध वा । स्थविरग्रथितं च तथा प्रमाणभूतत्रिधा सूत्रम् ॥१॥ श्रुतकेवली च तस्मादधिगतदशपूर्वकश्च तो स्थविरो।
आप्ताज्ञकारित्वाच्च सूत्रमितरत् स्थविरदृब्ध ॥२॥ 'सुत्त गणधर कहियं', आदि गाथाके अभिप्रायसे उक्त संस्कृत आर्यामओके अभिप्रायमें कोई अन्तर नही है । गाथामें श्रुतवली रचितको तथा दसपूर्वी रचितको सूत्र कहा है। संस्कृत पद्योमें उन दोनोको स्थविर बतलाते हुए स्थविर रचितको सूत्र कहा है। हमारा विश्वास है कि शतक चूणि तथा सि० टीकाके वीचमें अवश्य ही आदान-प्रदान हुआ है और उन दोनोमें से एकने दूसरेका अनुकरण किया है । उसके विना विभिन्न ग्रन्थोंसे सकलित की गयी गाथाए उसी क्रमसे दोनोमें नहीं मिल सकती।
हमारे उक्त विश्वास का आधार केवल उक्त गाथाए ही नहीं है, किन्तु दोनो ग्रन्थोमें समान रूपसे पाये जानेवाले उद्धरणोका तथा वाक्योंका बाहुल्य है।