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अन्य कर्मसाहित्य : ३४३ फिर गुणस्थानोमें मोहनीयके सत्त्व स्थानोका कथन है, और उसके लिए सित्तरीकी गाथा ४८ पाई जाती है । इसमें भी मतभंद है । सित्तरीमें 'तिगमिस्से' लिखकर मिश्रगुण स्थानमें मोहनीय कर्मके तीन सत्त्वस्थान बतलाये है, २८, २७
और २४ प्रकृतिक । किन्तु पचसग्रहमें 'युगमिस्से' पाठ रखकर मिश्रमें ही दो सत्त्वस्थान बतलाये है २८ और २४ प्रकृतिक । यह सैद्धान्तिक मतभेद को सूचन करता है।
आगे गुणस्थानोमें नाम कर्मके वन्वादि स्थानोका कथन करनेके लिये सि० की गा० ४९-५० आती है । उनका विवेचन किया गया है।
आगे गति आदिमें नाम कर्मके बन्धादि स्थानोका कथन करनेके लिए प० स० में सित०की गा० ५१ आती है। फिर इन्द्रिय मार्गणामें कथन करनेके लिये सि० की ५२ वी गा० पं० सं० में आती है। सितरी में आगेकी मार्गणामों में कथन नही किया है किन्तु पचसग्रहमें किया है । उसके पश्चात् सि० की ५३ वी गाथा आती है जो उपसहार रूप है । आगे उदय और उदीरणाके स्वामियो में अन्तर बतलानेके लिये सित्तरीकी ५४, ५५, आई हैं। फिर गुणस्थानको आधार बनाकर कौन किन कर्मप्रकृतियोका बन्ध करता है, इसका कथन सि० की गा० ५६, ५७, ५८, ५९, ६० के द्वारा प० स० में किया गया है। ___ आगे सि०की ६१ वी आदि गाथाओसे गतियोमें कर्मप्रकृतियोकी सत्ता-असत्ता का विशेष कथन किया गया है । ६१से आगे ७२ पर्यन्त सब गाथाएँ प०स० में वर्तमान है और उनके साय ही वह सम्पूर्ण होता है।
इस तरह इस अधिकारमें सित्तरीको कतिपय गाथामओके सिवाय शेष सभी गाथाएं अन्तर्निहित है जिनमेंसे कुछमें पाठभेद भी पाया जाता है ।
पंचसग्रहके उक्त परिशीलनसे तो यही प्रकट होता है कि उसमें ग्रन्थकारने षट्खण्डागम, कसायपाहुड, कर्मस्तव, शतक और सितरी इन पांच ग्रन्थोका संग्रह किया है। उनमेंसे अन्तके तीन ग्रन्थोको एक तरह से पूरी तरह आत्मसात्कर लिया है, शेष दोका आवश्यकतानुसार साहाय्य लिया है।
किन्तु प० परमानन्दजीने अपने 'श्वेताम्बर कर्म साहित्य और दि० पचसग्रह' नामक दूसरे लेखमें उक्त कथनसे बिल्कुल विपरीत विचार व्यक्त किया था। उनका कहना है कि कर्मस्तव, शतक और सित्तरी नाम के जो प्रकरण पाये जाते है वे उक्त पचसग्रहसे संकलित किये है। इन तीनो ग्रन्थोंमें सकलित गाथाएँ पचसग्रहकी मूलभूत गाथाएं और शेष व्याख्या रूप गाथाएँ भाष्य गाथाएँ है । किसीने मूलभूत गाथाओको शतकादि नामोसे पृथक् सकलित कर लिया है ।
जो कुछ स्थिति है उसमें पंडितजीके उक्त कथनको सहसा भ्रान्त तो नही