________________
३४२ . जेनसाहित्यका इतिहास
भग बतलाय है पचगंगहमें नहीं है । गा० २१ है इसमें नागकर्मके सत्वस्यानोको बतलाया है । यह गाना शाब्दिक भेदको लिए हुए है। इसी तरह आगे ३० आदि राख्या वाली गाथाएँ पचराग्रहमें यथास्थान है।
इस प्रकार नामकर्म बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानके भेद तथा उनके सवेधका कथन करके जीव समारा और गुणस्थानोके आश्रयमे कर्मों के उक्त स्थानोके स्वामियोका कथन किया है।
उसमें सि० गा० ३५ में और पच सग्रहमें आगत इसी गाथामें कुछ अन्तर है जो मतभेदका सूचक है। सप्ततिकामे दर्गनावरण के भेद पर्याप्त सज्ञी पचेन्द्रिय के ग्यारह बतलाये है और प० स० में १३ बतलाये है । इस अन्तरका कारण यह है कि सप्ततिकामें क्षीण कपायमें निद्रा प्रचला का उदय नही माना गया किन्तु पंचसग्रहमें माना गया है।
गा० ३७-३८ प० स० में व्यतिक्रमसे है पहले ३८ वी है फिर ३७ वी है। तथा मित्तरीमे सज्ञीके नामकर्मके दस सत्त्वस्थान कहे है किन्तु पं० स० में ११ कहे है । इमलिए सितरी मे अट्ठ दसग पाठ है । प० स० में अट्ठटठमेयार' पाठ है।
ऊपर यह लिखना हम भूल गये कि नामकर्मके सत्वस्थानको लेकर दोनो ग्रन्थोमें मतभेद है-सित्तरीके अनुसार उनकी संख्या १२ है-९३, ९२, ८९, ८८, ८६, ८०, ७९, ७८, ७६ ७५, ९, मीर ८ प्रकृतिक । और प० स० मे ९३, ९२, ९१, ९०, ८८, ८४, ८२, ८०, ७९, ७८, ७७, १० और ९ प्रकृतिक ।'
जीव समासोमें स्थानोका कथन करनेके पश्चात् गुणस्थानमें वन्वादिस्थानोका कथन है। किन्तु दर्शनावरण कर्मकी प्रकृतियोके उदयको लेकर मतभेद होनेके कारण उस सम्बन्धी गाथाएँ पचसग्रहमें नहीं है। ____ मागे सितरीकी ४२ से ४५ तक गाथाएं लगातार है। सित्तरीमें कुछ अन्तर्भाव्यगाथाएं है उसमें से भी एक दो गाथा प० स० में मिलती है । उक्त गाथाओके व्याख्यानरूप मोहनीयके उदय स्थानोका वर्णन पचसमें बहुत विस्तारसे किया गया है। १. कर्म प्रकृतिमे नाम कर्मके सत्व स्थान इस प्रकार बताये हैं
'तिदुगसय छप्पचगतिगनउइ नउइ इगुण नउइ य । चउ तिगदुगाही गासी नव अठ्यनामठाणाह ।।१४॥१०३, १०२, ९६ ९५, ९३, ९०, ८९, ८४, ८३, ८२ ९, और ८ । वन्धन सवातकी अलग गणना करनेसे १० की सख्या बढ़ गई है। सि० च मे अण्णे करके इस मतको अमान्य किया है।