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अन्य कर्मसाहित्य - ३३९ गिनाये है ये दोनो गाथाएँ पञ्चसंग्रहके प्रकृति समुत्कीर्तन नामक दूसरे अधिकारमें आ गई है । इसमे इस अधिकारमें नही दी है । इसके पश्चात् वधके मादि, अनादि ध्रुव और अध्र व भेदो का तथा अल्पतर, भुजकार, अवस्थित और अवक्तव्य भेदों का कथन है । ये कथन वन्ध शतक४० से ४३ तक चार गाथामओमे है ।
४३ वी गाथामें कहा है कि दर्शनावरण कर्मके तीन वन्ध स्थान है, मोहनीय कर्मके दस वन्धस्थान है, और नामकर्मक आठ बन्धस्थान है । इन तीन कर्मोमें ही भुजकारादिबन्ध होते हैं। शेप कर्मोंका तो एक ही वन्ध स्थान है । इस सामान्य कथनका पञ्चसग्रहमें बहुत विस्तारसे कथन ६५ गाथाभो द्वारा दिया गया है ।
पश्चात् व० श० में बन्धक का कथन गा० ४४ से ५० तक किया है । उसीका विस्तृत कथन पचसंग्रहमें है। व० शं० गा० २१ में कहा है कि गत्यादि मार्गणाओमें भी स्वामित्वका कथन कर लेना चाहिये । तदनुसार पचसग्रहमें गा० ३२५ से ३८९ तक उसका कथन किया है। उसके साथ ही प्रकृतिवन्धका कथन समाप्त हो जाता है। व० श० में गा० ५२ से ६४ तक स्थितिवन्धका कथन है। १० स० में यही कथन गा० ३९० से ४४० तक है। ब० श० की गा० ५२-५३ में आठों मुलकर्मो की स्थिति बतलाई है। ये दोनो गाथाएँ पञ्चसग्रहमें नहीं है । उनके स्थानमें दो भिन्न गाथामोके द्वारा आठो कर्मों की स्थिति वतलाई है। शेष गाथाएँ पञ्चसग्रहमें सम्मिलित है। व० श० में गाथा ६५ से ८६ तक अनुभाग वन्धका कथन है। ५० स० गा० ४४१ से ४९३ तक अनुभागवन्धका कथन है जिसमें व० श० की उक्त गाथाएं सम्मिलित है। केवल ७२ वी गाथा भिन्न है और ७३ वी गाथा के प्रथम चरणमें अन्तर है । मिलान से ऐसा प्रतीत होता कि इन गाथामोमें कुछ हेरफेर किया गया है किन्तु अभिप्रायमें भेद नही है । ब० श० की गाथा ८४ इस प्रकार है
चदुपच्चएग मिच्छत्त सोलस दु पच्चया य पणतीसं ।
सेसा तिपच्चया खलु तित्थयराहारवज्जामओ ॥८४॥ पं० स० में यह गाथा इस प्रकार है
सायं चउपच्चइओ मिच्छो सोलह दु पच्चया पणवीसा
सेसा तिपच्चया खलु तित्थयराहारवज्जा दो ।।४८॥ वन्ध शतकमें दूसरे गुणस्थान तक बंधने वाली पच्चीस और चौथे गुणस्थान तक बधनेवाली दस इन पैतीस प्रकृतियोके वन्धका कारण मिथ्यात्व और अविरतिको बतलाया है और शेष प्रकृतियोके बन्धके कारण मिथ्यात्व, अविरति, और कषाय को कहा है। किन्तु पचसग्रहमें केवल पच्चीसके ही बन्धका कारण मिथ्यात्व और अविरतिको वतलाया है और शेषके बन्धका कारण तीनोको बतलाया है ।