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अन्य कर्मसाहित्य : ३३७ विवेचन किया है । तत्पश्चात् बं० श० की छठी गाथा दी गयी है । उसमें जीवसमासोमें उपयोगोका कयन है। पचसग्रहकारने उसके पश्चात् १९ गाथाओ के द्वारा मार्गणाओमें उपयोगोका कथन किया है और समाप्ति पर लिखा है'एवं मग्गणासु उक्मोगा समत्ता।'
पश्चात् व० श० की ७ वी गाथा आती है उसमें जीवसमासमें योगका कथन किया है। इस गाथा में थोडा-सा अन्तर है। ब० श० में 'पन्नरस' पाठ है और प० स० में 'चउदस' । बन्धशतकके अनुसार पर्याप्त सज्ञी पजेन्द्रियके पन्द्रह योग होते है और प० स० के अनुसार चौदह अर्थात् वैक्रियिक मिश्रकाय योग सज्ञी पर्याप्तक के नहीं होता। किन्तु दोनो स० प० स० में सज्ञी पर्याप्तकके पन्द्रह योग बतलाये है।
___ इस विषयमें जो वात ऐतिहासिक दृष्टिसे उल्लेखनीय है उसका वथन पचसग्रहके कालका विवेचन करते समय करेंगे ।
पचसग्रहकारने व० श० की ७वी गाथाके अर्थका स्पष्टीकरण दो' गाथाओंसे करके आगे ग्यारह गाथाओसे ( गा० ४४-५४ ) मार्गणाओमें योगका कथन किया है।
पच सग्रहमें बन्धशतक की ८-९वी गाथाका नम्बर ५५-५६ है । इनके द्वारा मार्गणाओमें योगोंके वर्णनकी समाप्तिकी सूचना है । किन्तु इससे स्पष्ट है कि बन्धशतककी गाथा ८ के पूर्वाध को पञ्चसग्रहकारने अपने अनुसार परिवर्तित किया है । व० श० में पाठ है-उवजोगा जोगविही जीवसमासेसु वन्निया एव' ।
और प० स० में है-'उवओगो जोगविही मग्गणजीवेसु वाण्णिया एव' । इस परिवर्तनका कारण यह है कि व० श० में उपयोग और योगका कथन केवल जीवसमासमें किया है किन्तु पचसग्रहमें जीवसमास और मार्गणाओमें कथन किया है । अत तदनुकूल परिवर्तन किया गया है । आगे पं० स० में गाथा ५७ से ७० तक मार्गणाओमें गुणस्थान का कथन है। - पुन वं० श० की ग्यारहवी गाथा आती है। इसमें गुणस्थानोंमें उपयोगका कथन है। प० सं० में दो गाथाओके द्वारा इसका व्याख्यान किया गया है। इसके पश्चात् व० श० की बारहवी गाथा है इसमें गुणस्थानोमें योगोका कथन है। इसका व्याख्यान भी प० स० में दो गाथाओके द्वारा किया गया है। __ १-'सण्णि अपज्जतेसु वेउब्वियमिस्सकायजोगो दु । सण्णीसु पुण्णेसु चउदस जोया मुणे
यवा ॥४२॥ प. सं० पृ०४। २-'द्वौ चतुर्यु नवस्वेक समस्ता सन्ति सशिनि । नवस्वथ चतुर्वेकस्मिन्नेको द्वौ तिथि
प्रमा । सं० प० स०, १८ ।