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________________ अन्य कर्मसाहित्य • ३३५ प्रकृतियोंकी गणना गद्यमें है वह गद्य षट्खण्डागम प्रथम खण्ड जीवट्ठाणकी चूलिकाके अन्तर्गत प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकारके सूत्रोंसे बिल्कुल मिलती है। मेल और अन्तरको स्पष्ट करनेके लिए थोडा-सा नमूना दे देना पर्याप्त होगा। ___णाणावरणीयस्स कम्मस पंच पयडीमो ॥१३।। माभिणिवोहियणाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं मोहिणाणावरणीयं मणपज्जवणाणावरणीयं केवलणाणावरणीयं चेदि ॥१४॥-(षट्खे० पु०, ६ पृ० १४-१५) ____ 'जणाणावरणीय कम्म त पंचविह' । आगे ऊपर की तरह ही है, इसी प्रकार आभे कर्मों में समझना चाहिये । इस अधिकारका नाम भी चूलिकाके 'प्रकृति समुत्कीर्तन' नामका ही ऋणी है । अत. यह दूसरा अधिकार चूलिका के प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार के आधार पर ही रचा गया प्रतीत होता है। ____गद्यात्मक सूत्रोमे आठो कर्मों की प्रकृतियोको बतलानेके बाद कुछ गाथाएं आती है, उनमें बध प्रकृतियोंकी और उदय प्रकृतियोकी संख्या बतलाते हुए उद्वेलन प्रकृतियोंको और ध्रुवबन्धी तथा मध्रुवबन्धी प्रकृतियो को गिनाया है। तीसरे अधिकारका नाम बन्धोदय सत्ताधिकार है। पहली गाथा में जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करके 'बन्धोदय सत्त्व' को कहनेकी प्रतिज्ञा की गई है । संस्कृत पच सग्रहमें इस अधिकारका नाम 'कर्मवन्धस्तव' है। यथा-'कर्मवन्धस्तवाख्य तृतीय परिच्छेद ।' पहले 'कर्मस्तव' नामक जिस प्रकरण ग्रन्थका परिचय करा आये हैं उसकी ५५ गाओं में से ५३ गाथाएं इस अधिकारमें प्रायः ज्योकी त्यो उपलब्ध होती है। इस अधिकारकी गाथा संख्या ७७ है उनमेंसे ५३ गाथाएँ कर्मस्तवकी है। उन्हें मुद्रित प्रतिमें मूल गाथा कहा है । पंचसंग्रहके इस अधिकारकी तथा कर्मस्तवको पहली गाथा एक ही है। अत' कर्मस्तवका भी मूल नाम 'बन्धोदय सत्त्वयुक्त स्तव' ही है। किन्तु यह कर्मस्तवके नामसे ही प्रसिद्ध है। मूल कर्मस्तवमें ५५ गाथाएँ है । उसमेंसे ५३ गाथाएं कुछ व्यतिक्रमसे इस पंच संग्रहके तीसरे अधिकारमें है। इस तीसरे अधिकारकी गाथा सख्या ६४ है। उसके बाद चूलिका अधिकार है उसमें १३ गाथाएँ है। इस तरह सब ७७ गाथएँ हैं। मूल कर्मस्तवकी ५३ गाथाएँ ६४ में गभित है, चूलिकामें नहीं। पच सग्रहके इस अधिकार की जो गाथाएँ कर्मस्तव में नहीं है या व्यतिक्रमसे है उन पर प्रकाश डालना उचित होगा। इस अधिकारका नाम बन्धोदय सत्त्व युक्त स्तव होनेका कारण यह है कि इसमें कर्मों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्वका कथन किया गया है। अत' पंच संग्रहमें पहले तो बन्ध उदय, उदीरणा और सत्ताका लक्षण वा स्वरूप कहा है । फिर गुणस्थानोमें आठों मूल कर्मोके बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ताका कथन किया है । यह कथन २ से ८ तक ७ गाथाओं में है । कर्म स्तवमें यह कथन नही है अतः
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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