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अन्य कर्मसाहित्य ३१३
टीकाके साथ छपकर प्रकाशित हो चुका है । उसके दो सस्करण' हमारे सामने है। एकमें शतकके साथ चूणि भी मुद्रित है। इसपर श्रीशतक प्रकरण नाम मुद्रित है । दूसरे संस्करणमें शतकके साथ मलधारी हेमचन्द्र रचित टीका तथा चक्रेश्वराचार्य विरचित भाष्य मुद्रित है। चूणि टोकामें उसे कर्म-प्रकृतिकार शिवशर्म सूरिकी रचना बतलाया है। अत यह मानना होगा कि कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिमें जिस शतक अथवा बन्ध-शतकका निर्देश है वह यही है। उनमें जिन विषयोके लिए शतकका निर्देश किया है वे विषय भी प्रस्तुत शतकमें मिलते है।
चूर्णिकारने 'गाहापरिमाणेण सयमेत्त' तथा टीकाकारने 'गाथाशतपरिमाणनिष्पन्न यथार्थनामक शतकाख्य प्रकरणम्' लिखकर यह सूचन किया कि प्रस्तुत प्रकरणकी गाथा सख्या सौ है इसीसे इसका शतक नाम सार्थक है। किन्तु वास्तवमें दोनो ही सस्करणोमें गाथा परिमाण १०६ है। उन १०६ गाथाओपर चूणि और टीका दोनो है । फिर भी शतक नाम रखनेका और तदनुसार सौ गाथा सख्या बतलानेका कारण यह जान पडता है कि आदिकी तीन तथा अन्तकी तीन गाथाएं भारम्भ-परक और उपसहार-परक है। प्रतिपाद्य विषय मध्यकी सौ गाथाओमें ही पाया जाता है । अत 'शतक' नाम उचित ही है । इसका दूसरा माम बन्धशतक भी है। कर्मप्रकृतिमें इसका उल्लेख बन्धशतक के नामसे है । चर्णिकारने इसका खुलासा कर दिया कि शतकको ही बन्धशतक कहा है । अत चर्णिकारके समयमें शतक नामसे ही इसकी ख्याति थी ऐसा प्रतीत होता है। शतकके उत्तरार्णमें बन्धका वर्णन होनेसे उसे बन्ध-शतक नाम दिया गया है। किन्तु शतककी एक सौ सात गाथाओमें उसका कोई नाम नही दिया । प्रथम गाथा में कहा है-'इस प्रकरणमें जीवस्थान और गुणस्थानोके विपयमें दृष्टिवादसे सारयुक्त गाथाएं कहूगा, उन्हें सुनो,।' आगे गाथा २-३में वर्णित विषयकी सूची दी है। उसमें कहा है-'जिन जीवस्थानो और गुणस्थानोके जितने उपयोग और योग होते १ दोनों सस्करण राजनगरस्थ वीर समाजकी ओरसे प्रकाशित हुए हैं। २. 'केण कय ? ति शब्दतर्क न्याय प्रकरण कर्मप्रकृति सिद्धान्त विजाणएण अणेगवाय समा
लद्धविएण सिवसम्मायरियणामधेज्जेण कय।-चु०। ३. 'अनेकवादसमरविजयिमि श्रीशिवशर्मसूरिमि सक्षिप्ततर सुखबोध च गाथाशत
परिमाणनिष्पन्न यथार्थनामक प्रकरणमम्यधायीति । श० टी० । ४. 'सुणह इह जीवगुणसनिए सु ठाणेसु सारजुत्ताओ। वोच्छ कइवइयाओ गाहामओ दिठिवा
याओ ॥१॥-शतक । ५. 'उवयोग जोग विही जेसु य ठाणेसु जत्तिया अस्थि । जप्पच्चइओ वधो होइ जहा जेसु ठाणेसु ॥२॥बध उदयमुदीरणविहिं च तिण्ह पि तेसि सजोग । बधविहाण य तहा किंचि
समासं पवक्खामि ॥३॥-शतक ।