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३१२ : जैनसाहित्यका इतिहास कहा है-'जिन जीवस्थानो और गुणस्थानोमें जितने उपयोग और योग होते है उन्हे कहे वन्धके चार प्रत्यय है-मिथ्यात्व, असयम, कपाय और योग । इनमेंसे किस गुणस्थानमें कितने प्रत्यय होते है यह कहेंगे । ज्ञानावरणादि आठो कर्मोके वन्धके विशेप कारणोका कथन करेंगे। जिनगुणस्थानोमे जितने वधस्थान उदयस्थान और उदीरणा स्थान होते हैं उनका तथा उनके सयोगका कथन करेंगे । अन्तमें सक्षेपसे वन्धविधानका कथन करेंगे।' ___ उक्त विषयसूचीके अनुसार कथन करते हुए ग्रन्थकारने सबसे प्रथम गाथा ४-५ में चौदह जीवस्थानोको कहा है। गाथा ६ में चौदह जीव समासोमें उपयोग ( ज्ञानोपयोग-दर्शनोपयोग ) का कथन किया है। गाथा ७ में योगका कथन है । गाथा ९ में चौदह गुणस्थानोके नाम गिनाये है । चूर्णिकारने अपनी चूर्णिमें अनेक गाथाए उद्धृत करके गुणस्थानोका स्वरूप समझाया है ।
गाथा १०में केवल गतिमार्गणामें गुणस्थानोका निर्देश किया है । किन्तु चूणिमें चौदहो मार्गणाओमें गुणस्थानोका कथन सक्षेपसे किया है। गाथा ११ में गुणस्थानोमें उपयोगका कथन किया है । गाथा १२-१३ में गुणस्थानोमें योगका कथन है। यद्यपि गाथा १२ में ही योगका कथन हो जाता है। किन्तु १३ वी गाथा मतान्तरकी सूचक है । उसके सवन्धमें चूर्णिकारने लिखा है कि किन्ही आचार्योके मतसे देशविरत और प्रमत्त-सयत गुणस्थानमें वैक्रियिक काययोग होता है उनके मतसे ऐसा पाठ है । शतककी ये दोनो गाथाएं चपकृत पंचसग्रहकी गाथा (अ०१-१८ ) की स्वोपज्ञ वृत्तिमें इसी क्रमसे उद्धृत है । गाथा १४-१५में गुणस्थानोमें बन्धके प्रत्ययोका कथन है । गाथा १६-२६तक आठो कर्मोके वन्धके विशेष कारण बतलाये है, जो तत्त्वार्थसूत्रके छठे अध्यायके अन्तमें भी बतलाये गये है । किन्तु दर्शन-मोहनीय कर्मके बन्ध-कारणोमें मौलिक अन्तर है । तत्त्वार्थसूत्र में 'केवली श्रुत,सघ, धर्म और देवोके अवर्णवादको दर्शन मोहनीयके वन्धका कारण बतलाया है । और शतक में अरिहन्त, सिद्ध, चैत्य, तप, श्रुत, गुरु, साधु और सघकी प्रत्यनीकताको बधका कारण बतलाया है। गाथा २७ से ३७ तक आठो कर्मोके बन्धस्थानो, उदयस्थानो और उदीरणास्थानो तथा उनके सयोगका कथन है । तत्पश्चात् प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभाग वन्ध और प्रदेशबन्धका कथन है।
शतक नामक एक ग्रन्थ, जिसे प्राचीन कर्मग्रन्थ कहा जाता है, चूणि,भाष्य और
१ केवलि श्रुतसधधर्मदेववर्णवादो दर्शनमोहस्य ।। त सू अ६ । २. अरहतसिद चेइय तघसुय गुरु साधु सघ पड़णोओ। बधइ दसणमोह अणत सारिओजेत
॥१८॥-५। तक