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अन्य कर्मसाहित्य : ३०७ उदीरणा' प्रकरणमें कर्मप्रकृति-चूणिमें उत्तरप्रकृतिके १५८ भेद बतलाये है। उदीरणा प्रकृतियोकी सख्या अभेद विवक्षा से १२२ मानी गयी है। और भेद विवक्षासे १४८ । औदारिकि, आदि शरीरोके सयोगी भग पन्द्रह होते है और उनको शामिल कर लेनेसे १५८ प्रकृतियां हो जाती है । गोमट्टसार कर्मकाण्ड में उक्त सयोगी भग गिनाये अवश्य है और नामकर्मकी सत्व-प्रकृतियोको गिनाते हुए ९३ या १०३ लिखकर उन्हें सम्मिलित भी किया है किन्तु सत्त्व-प्रकृतियोकी सख्या १४८ ही बतलायी है। ___ कर्मप्रकृतिके टीकाकार उपाध्याय यशोविजय ने अपनी टीकामें इसपर लिखा है कि यद्यपि उदय प्रकृतियोकी संख्याके तुल्य ही उदीरणा प्रकृतियोकी संख्या होती है और इसलिए कर्मस्तव-टीका आदिमें उनकी संख्या १२२ बतलायी है और यहाँ १५८ बतलायी है । तथापि एकसौ वाईस में वन्धनादिकी पृथक् विवक्षा नही की है और १५८ में पृथक् विवक्षा की है इसलिए कोई दोष नही है। फिर भी १५८ सख्यामें भी मान्यता-भेद तो रहा ही है । मलयगिरि ने गर्गषि आदिके मतमें १५८ प्रकृति संख्या होनेका निर्देश किया है।
२. कर्मप्रकृति में क्षपक-श्रेणीमें क्षीणकषाय गुणस्थानमें निद्रा और प्रचलाका उदय नही माना है । तदनुसार चूणिमें भी लिखा है । इस बातको लेकर श्वेताम्बर सम्प्रदायमें मतभेद पाया जाता है। किन्तु दिगम्बर धर्मके भूतबलि और यतिवृषभ दोनो ही उक्त गुणस्थानोमें निद्रा और प्रचलाका उदय मानते है । गो०५ कर्मकाण्डमें उदय न्युच्छित्तिमें जो दोनो आचार्योंके मत दिये है, उससे यह स्पष्ट है । किन्तु इतना सुनिश्चित जान पडता है कि कर्मप्रकृतिकी चूणि बनानेवालेके सामने यतिवृषभके चूर्णिसूत्र अवश्य थे और उसने कही- कहीपर तो उनका शब्दशः अनुकरण किया है । उदाहरणके लिए हम उपशामनाका भाग उद्धृत करते हैं
'उवसामणा दुविहाकरणोवसामणा अकरणोवसामणा च । जा सा अकरणोवसामणा तिस्से दुवे गामधेयणि अकरणोवसामणाा त्ति वि अणुदिण्णोवसामणा
१. 'उत्तरपतिउदोरणा अछावणुत्तरसतभेदा'-क प्र. चू।। २ 'यद्यप्युदीरणायामुदयसमकक्षतया प्रकृतीना द्वाविंश शत कर्मस्तवटीकादावुक्तम्, इह तु
अष्टपञ्चाशं शतं, तथापि तत्र वन्धनादीना पृथग न विवक्षा, इह तु पृथग् विवक्षेति न
दोष ।-कर्म प्र., उदी.,पृ. ३. गर्षि प्रभूतिमते च बन्धन पञ्चदशकग्रहणादष्टपन्चाश शतम् ।'-क. प्र.टी,
पृ०८। ४. निद्दापयलाण खीणरागखवगे परिच्चज्ज ॥१८॥' 'खीणकसाय खवगखीणकसाय
खवगे मोत्तण तेसु उदओ णत्थि ति। कर्मप्र, चू, उदी.। ५ कर्मका०, गा०।