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अन्य कर्मसाहित्य : २९९ यहां भी दोनोफे उत्तरार्द्धमें अन्तर है और थोडा-सा मतभेद भी है। दोनोमें कहा है कि उक्तसे अवशिष्ट प्रकृतिस्थान-सक्रम उपशमणि और क्षपकश्रेणिमें सक्रान्त होते हैं । किन्तु कसायपाहुडमें आगे कहा है कि वीसका सक्रम केवल छ और पांच इन दो ही स्थानोमे होता है और कर्मप्रकृतिमें कहा है कि सात, छै और पांचमें वीसका सक्रमण होता है । यह अन्तर है ।
पचसु च ऊणवीसा अठारस चदुसु होति वोद्धन्वा । चोद्दस छसु पयडीसु य तेरसय छक्क पणगम्हि ।।३५।। क० पा० पचसु एगुण वीसा अट्टारस पचगे चउक्के य ।
चोदस छसु पगडीसुतेरसग छक्कपणगम्मि ॥१८॥ क० प्र० यहाँ भी दोनोमें थोडा अन्तर है । कसायपाहुडके अनुसार १८ का सक्रमण चार प्रकृतियोमें होता है और कर्मप्रकृतिके अनुसार चार और पांचमें होता है।
शेष चार गाथाओमें कोई अन्तर नहीं है। इस तरह संक्रमण प्रकरणमें १३ गाथाएँ ऐसी पायी जाती है जो कसायपाहुड की है। इस प्रकरणकी गाथासख्याका प्रमाण एक सौ ग्यारह है।
सक्रम-करणके पश्चात् उद्वर्तना-अपवर्तनाकरणका कथन है। ये दोनो करण स्थिति और अनुभागसे सम्बन्ध रखते है । स्थिति और अनुभागके वढानेको उद्वर्तना और घटानेको अपवर्तना कहते हैं । उद्वर्तना तो बन्धकाल पर्यन्त ही होती है किन्तु अपवर्तना बन्धकालमें भी होती है जोर अवन्धकालमें भी होती है । दस गाथाओके द्वारा इन दोनो करणोंका कथन है ।
पश्चात् उदीरणा-करण का कथन है। विशुद्ध अथवा सक्लेश परिणामोके द्वारा उदयावलि-बाह्य निषेकोको अपवर्तनाके द्वारा बलात् उदयावलीमें ला कर उनका वेदन करनेको उदीरणा कहते है। जैसे आमोको तोडकर भूसे आदिमें दवाकर जल्दी पका कर खाते है । उसी तरह जो कर्मको अपने समयसे पहले भोग किया जाता है उसे उदीरणा कहते हैं। उसके भी चार भेद है-प्रकृति-उदीरणा, स्थिति-उदीरणा, अनुभाग-उदीरणा और प्रदेश-उदीरणा । प्रकृति-उदीरणा और प्रकृतिस्थान-उदीरणाका कथन करते हुए उनके स्वामियोका कथन किया है कि अमुक-प्रकृतिकी उदीरणा कौन करता है। इसी प्रकार स्थिति-उदीरणा आदिका भी कथन किया है । इस प्रकरण की गाथा सख्या ८९ है । ___ उपशमना-करण का कथन करते हुए इन अधिकारोके द्वारा उसका कथन किया है-प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पादना, देश विरति की प्राप्ति, अनन्तानुबन्धी काषाय का विसयोजन, दर्शनमोहकी क्षपणा, दर्शनमोहकी उपशामना, चारित्रमोहकी उपशमना।