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________________ अन्य कर्मसाहित्य • २९७ वन्धनकरणमें १०२ गाथाएं हैं । एक कर्मप्रकृति के दलिकोका सजातीय अन्य प्रकृतिरूप सक्रान्त होनेकी क्रियाको सक्रमण कहते है । किन्तु जैसे मूल प्रकृतियोंमें परस्परमें सक्रमण नही होता वैसे ही दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयमें परस्परमें सक्रमण नही होता और न आयु कर्मकी चार उत्तर प्रकृतियोंमें परस्पर सक्रमण होता है । इस सक्रमणके भी बन्धके चार भेदोकी तरह चार भेद है - प्रकृतिसक्रम, स्थितिसक्रम, अनुभागसक्रम और प्रदेशसक्रम । प्रकृतिसक्रमके भी दो मूल भेद है एकैक प्रकृति - संक्रम और प्रकृति-स्थान सक्रम । जब एक प्रकृति एक प्रकृतिमें सक्रान्त होती है तो उसे एकैक प्रकृति संक्रम कहते है । और जब वहुत-सी प्रकृतियों में परस्परमें सक्रमण होता है तो उसे प्रकृतिस्थान सक्रम कहते हैं । कसायपाहुडमें केवल मोहनीय कर्मका ही कथन है, जब कि कर्मप्रकृतिमें आठो कर्मोके सम्बन्धमें कथन है । अत कसायपाहुडके वन्धक महाधिकार के अन्तर्गत संक्रम नामक अधिकारकी २७ से ३९ नम्बर तककी तेरह गाथाएँ अनुक्रमसे कर्मप्रकृति के सक्रम करण नामक अधिकारमें पायी जाती है । यह कहने की आवश्यकता नही कि ये गाथाएं मोहनीय कर्मके प्रकृति स्थानसक्रम से सम्बद्ध हैं । यहाँ हम तुलना के लिए दोनो ग्रन्थोसे उक्त गाथाओको उद्धृत कर देना उचित समझते हैं इससे दोनोमें जो पाठ भेद है वह भी स्पष्ट हो जायेगा । अट्ठावीस चउवीस सत्त रस सोलसेव पण्णरसा । दे खलु मोत्तूण सेसाण संकमो होइ ||२७|| क० पा० अट्ठ चउरहियवीस सत्तरस सोलस च पन्नरस । वज्जिय सकट्टालाई होति तेवीसइ मोहे ॥ १० ॥ क० प्र० दोनो गाथाओ में कहा है कि अट्ठाईस, चौबीस, सतरह, सोलह और पन्द्रह प्रकृतिक स्थानोको छोडकर मोहनीय कर्मके शेष स्थानोमें जिनकी सख्या २३ है, सक्रमण होता है । दोनो गाथाओकी चूर्णियोमें कोई ऐसी उन्लेखनीय समानता नही है जिसपर कोई कल्पना की जा सके । सोलसग बारसट्टग वीस वीसं तिगादि गायिगा य । एदे खलु मोत्तूण सेसाणि पडिग्गहा होंति ॥ २८ ॥ क पा० सोलस वारसगट्टग वीसग तेवीस गाइगे छच्च । वज्जिय मोहस्स पडिग्गहा उ अट्ठारस हवति ॥११॥ क० प्र० । दोनो गाथाओके अर्थमें कोई अन्तर नही है । रेखाकित पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है कर्मप्रकृतिका पाठ ठीक है । दोनोमें कहा है कि सोलह, बारह, आठ, बीस और तेईस आदि छै स्थानोको छोड कर शेष मोहनीयके पतद्ग्रह होते हैं । जिन
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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