________________
प्राचीन कर्मसाहित्य : २९१ 'आष' और 'आर्षवचन'का निर्देश किया गया । बातोसे भी हमारे उक्त अनुमानका ही समर्थन होता है । वह व्यक्ति कौन हो सकता है, यद्यपि यह कहना शक्य नहीं है । किन्तु धवलाकी प्रशस्तिके अन्तमें एक गाथा इस प्रकार है
वोद्दणराय गरिदे णरिद चूडामणिम्हि भुजते । सिद्धतगथमत्थिय गुरुप्पसाएण विगत्ता सा ॥९॥
यहाँ यह बतला देना उचित होगा कि धवला प्रशस्तिकी इससे पूर्वकी गाथाओमें 'कत्तियमासे एसा टीका हु समाणिया धवला' लिखकर धवलाकी समाप्तिका काल और जगत्तुगदेवके राज्यमें धवलाकी. समाप्तिका कथन किया जा चुका है। इसीसे उसके पश्चात् ही दूसरे राजाके राज्यका उल्लेख बडा अटपटा लगता है और उसकी सगति बैठानेके लिए यह कल्पना की जाती है । कि जगत्तु ग' के राज्यमें धवलाका प्रारम्भ हुआ और नरेन्द्रचूडामाणि वोद्दणराय (अमोघवर्ष प्र० के राज्यमें उसकी समाप्ति हुई। किन्तु यह सब उक्त अन्तिम गाथाके आये हुए अतमें 'विगत्ता' शब्दपर ध्यान न देनेका फल है । 'विगत्ता' शब्द अशुद्ध प्रतीत होता है । 'वि' उपसर्ग पूर्वक कृत् धातुसे कृदतमें 'विगत्ता' बनता है। उसका अर्थ होता काटा हुआ या छिन्न उससे यहा कोई प्रयोजन नही है। अतः 'विगत्ता के स्थानमें 'विअत्ता' पाठ शुद्ध प्रतीत होता है। उसका अर्थ होता है-व्यक्ता अर्थात् स्पष्ट की गयी। अत नरेन्द्रचूडामणि बोद्दणराय नरेन्द्रके राज्यकालमें धवला या उसके किसी अशको जिसने व्यक्त किया उसीके द्वारा यह पद्य रचा जान पडता है । और पीछेसे वह मूल प्रशस्तिके अन्तमें जोड़ दिया गया है । इस तरहकी यह घटना नई नही है । ऐसे और भी उदाहरण मिलते है ।
वीरसेनके शिष्य गुण भद्रके उत्तरपुराणको अन्तिम प्रशस्तिमें गुणभद्र शिष्य लोकसेनकी प्रशिस्त जुड गयी है । जिनसेनके पावर्वाभ्युदयका निर्देश हरिवशपुराण में है जो शक स० ७०५ रचा गयाथा और पाम्युिदय के अन्तमें अमोघवर्षका उल्लेख है जो शक स० ७३५ के पश्चात् गद्दीपर बैठे। अत स्पष्ट है, कि अमोघवर्पके उल्लेखवाले पद्य उसमें पीछेसे जोडे गये। इसी तरह धवलाकी
१. जै० सा० इ०, पृ० १४७ । २. जै० सा० इ०, पृ० १४२ । ३. 'या मिताभ्युदये पावजिनेन्द्र गुणस्तुति । स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्ति सकीनं यत्यसौ
||४०॥ द० पु. १०प्र० । ४. 'इति विरचित मेतत् कान्यमावेष्टय मेघ बहुगुण मपदोष कालिदास्य काव्यम् ।
मलिनित परकाव्य तिष्ठता दशशाङ्क भुवनमवतु देव सर्वदाऽमोघवर्ष ॥-पाश्र्वा०