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२४८ : जैनसाहित्यका इतिहास
ऐसी स्थितिमें यह विचारणीय हो जाता है कि वीरसेन स्वामीने धवलाकी उक्त प्रशस्ति में यदि विक्रमाक शकका ही उल्लेख किया है तो विक्रम सम्वत्के अर्थमें किया है या शक सम्वत् के अर्थमें ? और ३८ के अकमे पहले कौन-सा अक होना संभव है ?
प्रथम विचारणीय विषयके सम्बन्धमें प्रो० हीरालालजीका कहना है कि 'वीरसेनस्वामीने जहां-जहां वीरनिर्वाणको कालगणना दी है वहा शककालका ही उल्लेख किया है । उनके शिष्य जिनसेनने जयधवलाकी समाप्तिका काल शकगणनानुसार ही सूचित किया है। दक्षिणके प्राय समस्त जैन लेखकोने शककालका ही उल्लेस किया है। ऐसी अवस्थामे आश्चर्य नही जो यहा भी लेखकका अभिप्राय शककालसे हो' ।
प्रोफेसर साहवका कथन उचित है । किन्तु वीरसेनने जहा कही शकका निर्देश किया है, उसके साथ विक्रमाक विशेषणका कही भी प्रयोग नही किया । यदि वह या उनके शिष्य जिनसेन शकके साथ एकाध जगह भी विक्रमाक विशेषणका प्रयोग करते तो प्रोफेसर साहबको उक्त युक्तिया वलवती होती । ऐसी स्थितिमें प्रशस्तिके छठे श्लोक में आगत विक्कमराय शब्द विचारणीय हो जाता है |
दूसरे विचारणीय विषयके सम्बन्धमें प्रोफेसर साहबका कथन है कि - 'गाथा में 'शत' सूचक शब्द गडवडीमें है । किन्तु जान पडता है लेखकका तात्पर्य कुछ सो ३८ वर्ष विक्रम सम्वत् के कहने का है । किन्तु विक्रम संवत्के अनुसार जगतुग का राज्य ८५१ से ८७० के लगभग आता है । अत उसके अनुसार ३८ के अक की कुछ सार्थकता नही बैठती । x x x यदि हम उक्त संख्या ३८ के साथ सात सौ और मिला दें और ७३८ शक सम्वत्को लें तो यह काल जगतुगके ज्ञातकाल अर्थात् शक सम्वत् ७३५ के बहुत समीप आ जाता है' ।
इस तरह जहाँ डा० हीरालालजी धवलामें प्रयुक्त सम्वत्को शक सम्वत् मानकर ३८ से पहले सात अक रखना उचित समझते है, वहा डा० ज्योति - प्रसादजी उसे विक्रम सम्वत् मानकर ३८ से पहले ८ का अक रखना उचित समझते है । अर्थात् उनके मतसे घवलाकी समाप्ति वि० स० ८३८ में ( शक स. ७०३ ) में हुई ।
ऐसी स्थितिमें इन दोनो कालो पर अब दूसरे प्रकारसे विचार करना उचित होगा । धवलाकी प्रशस्तिको गाथासख्या ७ में 'जगतुंगदेवरज्जे' पद है । अर्थात् जगतुगदेवके राज्यमें जयधवला समाप्त हुई । और गाथासख्या ९ में कहा है, कि उस समय नरेन्द्रचूडामणि वोद्दणरायनरेन्द्र राज्यका उपभोग करते थे ।
१. पट्ख., भा. १ प्रस्ता०, पृ ४५ ।
२ पटख, भा. १, प्रस्ता०, पृ. ४० ।