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धवला-टीका २४७ और तदनुसार धवलाकी समाप्तिका काल शक सम्वत् ७३८ निर्धारित किया था। इस पर डा० ज्योतिप्रसाद जैनने आपत्ति की । वास्तवमें 'पासे'का 'वासे', 'भाव'का भाणु, 'वरणिवुत्ते'का तरणिपुत्ते और 'मॅढिचदम्मि'का 'मीणे चंदम्मि' सुधार तो सम्भव प्रतीत होता है किन्तु 'सासिय'का 'सतसए' और 'विक्कमरायम्हि एसु सगरमो'का 'विक्कमरायकिए सुसगणामे' सुधार कष्टसाध्य ही प्रतीत होता है । गाथा छैके मूल पाठसे इतना तो स्पष्ट है कि सवत् विक्रमराजाके नामसे सम्बद्ध है और उसके अकोमें एक अक ३८ है । विक्रमराजाके नामसे सम्बद्ध सम्वत् तो विक्रम सम्वत् है ही । किन्तु जैनपरम्परामें शक सम्वत्का उल्लेख भी विक्रमाक शकके नामसे मिलता है। जैसे त्रिलोकसारकी टीकामें टीकाकार माधवचंद त्रैविद्यने लिखा है-'श्रीवीरनाथनिवृते. सकाशात् पचोत्तरषट्शतवर्षाणि (६०५)पचमासयुतानि गत्वा पश्चात् विक्रमाकशकराजो जायते । अर्थात् वीरनिर्वाणसे ६०५ वर्प ५ मास पश्चात् विक्रमाक शक राजा हुआ।
यहाँ पर विक्रमाकशकसे तात्पर्य स्पष्ट रूपसे शक सम्वत्के सस्थापकसे है, क्योकि त्रिलोकसारकी जिस 'गाथा ८५० को यह टीका है उसमें शकका ही निर्देश है। तथा वीरसेन' स्वामीने भी अपनी धवला टीकामें वीर निर्वाण
और शक राजाके मध्यमें ६०५ वर्प पाच मासका अन्तर बतलाया है। यद्यपि उन्होने इस विषयमें अन्य आचार्योके मत भी दिये है किन्तु उनका अपना मत यही था।
अकलकचरित्र में अकलकके बौद्धोके साथ शास्त्रार्थका समय विक्रमार्क शक सम्वत् ७०० दिया है। यहा ग्रन्थकारने विक्रमार्क शक नामसे विक्रम सम्वत्का उल्लेख किया है, या शक सम्वत्का, यह निश्चयपूर्वक नही कहा जा सकता । तथापि इतना निश्चित प्रतीत होता है कि यह शक सम्वत् ७०० नही हो सकता, क्योकि शक सम्वत् ७०५ में रचे गये हरिवशपुराणमें वीरसेन और जिनसेनको स्मरण किया गया है और वीरसेनने अपनी धवलाके आरम्भमें ही अकलकदेवके तत्त्वार्थवार्तिकसे बहुतसे उद्धरण दिये है। तथा अकलकका उल्लेख करनेवाले धनजय कविके कोश से भी धवला में उद्धरण दिया गया है । अस्तु, १. पणछस्सयवस्स पणमासजुद गमिय वीरणिव्वुइदो सगराजो' २ 'एसो वीरजिणिदणिव्वाणगददिवसादो जाव सगकालस्स आदी होदि तावदियकालो।
कुदो? (१९१) एदम्हि काले सगणरिंदकालम्मि पक्खित्ते वड्ढमाणजिणणिव्वुदकाला
गमणादो।'-पर्खतप ९, पृ. १३२ । ३ "विक्रमार्कशकाब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि। कालेऽकलकयतिनो बौद्धर्वादो महानभूत ॥'
अक.च.। ४ 'प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षण ।' ध० ना० मा० श्लो० २०३ । ५ पटख०, पु ९, पृ. २३७ ।