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धवला - टीका
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कर्म दानादिसे निबद्ध है । इसी प्रकार उत्तरप्रकृतियोंमें भी निबद्धताका विचार किया है ।
अन्तमें वीरसेन स्वामीने लिखा है - 'इस अनियोगद्वार में इतनी ही प्ररूपणा की गई है क्योकि शेप अनन्त पदार्थ विषयक निबन्धनके उपदेशका अभाव है ।'
८ प्रक्रम -- यहाँ यह बतला देना उचित होगा कि प्रत्येक अनुयोगद्वारके आरम्भमें प्रथम निक्षेप योजना की गई है । जैसे प्रक्रमके छ भेद किये है-नाम प्रक्रम, स्थापना प्रक्रम, द्रव्य प्रक्रम, क्षेत्र प्रक्रम, काल प्रक्रम और भाव प्रक्रम | फिर प्रत्येकका स्वरूप वतलाकर यह स्थिर किया है कि यहाँ कर्म प्रक्रमका प्रकरण है अत वही लेना चाहिये । अत यहाँ कार्मणपुद्गलप्रचयको प्रक्रम कहा है ।
काकारने शका की है कि कर्मसे ही कर्मकी उत्पत्ति होती है अकर्मसे कर्म की उत्पति नही हो सकती ? धवलाकारने इसका विरोध करते हुए साख्यके सत्कारणवादका खण्डन किया है । और अन्तमें सप्तभगकी योजना की है । पश्चात् वस्तुको विनाशस्वभाव मानने वाले बौद्धका खण्डन करके वस्तुको उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक सिद्ध किया है । फिर मूर्त कर्मोका अमूर्त जीवके साथ सम्बन्ध कैसे होता है, इसका समाधान करते हुए प्रक्रमके तीन भेद किये है - प्रकृति प्रक्रम स्थिति प्रक्रम और अनुभाग प्रक्रम । फिर उनका वर्णन किया है । अन्तमें अल्पबहुत्वका कथन करके लिखा है, यह निक्षेपाचार्यका " उपदेश है ।
९. उपक्रम -- प्रक्रम और उपक्रममें अन्तर बतलाते हुए लिखा है कि प्रक्रम अनुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति और अनुभाग रूपसे बन्धको प्राप्त होनेवाले प्रदेशाग्रेका कथन करता है । परन्तु उपक्रम अनुयोगद्वार बन्ध होनेके द्वितीय समयसे लेकर सत्व रूपसे स्थित कर्मपुद्गलोके व्यापारका कथन करता है ।
उपक्रमके चार भेद किये है- प्रकृतिबन्धनउपक्रम, स्थितिवन्धनउपक्रम, अनुभागबन्धनउपक्रम और प्रदेशबन्धनउपक्रम । और लिखा है कि 'सतकम्मपयडिपाहुड' में जैसा कथन किया है वैसा कर लेना चाहिए। इसपर १. 'एवमेत्थ अणिओगद्दारे एत्तिय चैव परूविद, सेसअणतत्थविसयउवदेसाभावादो ।' - पट्ख. पु १५, पृ १४ ।
२. 'एसो णिक्खेवाइरियउवएसो - पु १५, पृ ४० । ३. 'पक्कम उवक्कमाण को भेदो ? पयडि ट्ठिदि - अणुभागेसु ढुक्कमाणपदेसग्गपरूवण पक्कमो कुणइ, उवक्कमो पुण बध विदिय-समयहुडिसतसरूवेण ठ्ठिदकम्मपोग्गलाण वावार परूवेदि ।' -पु. १५, पृ. ४२
४. " एत्थ एदेसिं चदुण्णमुवक्कमाण जहा सतकम्मपयडिपाहुडे परुविद तहा पारूत्रेयन्वं । जहा महाबधे परूविंद तहा परूवणा एत्थ किण्ण कीरदे ण, तस्स पढमसमयवधम्मि चैव वावारादो' - पु . १५, पृ. ४३ ।