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________________ २३४ · जैनसाहित्यका इतिहास लिये उन्होने महावन्धके स्थानमे एक रात्वर्म नामक छठा सण्ड रचकर शेप पांच खण्डोमे शामिल कर दिया । पदसण्डागमके परिचयमे यह बतलाया है कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चोवीरा अनुयोगद्वारोमेसे आदिवे के अनुयोगद्वागेको लेकर पट्खण्डागमकी रचना की गई है । अत शेप अठारह अनुयोगद्वारीका साधारण परिचय वीरसेनस्वामीने अपने इस सत्कर्ग नामक मण्डमें किया है और उसका आधार वप्पदेवकृत व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक छठा सण्ड था। इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें' ऐसा ही लिया है। ___ सत्कर्मका आरम्भ करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है कि 'भूतवलि भट्टारकने यह सूत्र देशामर्गक रूपसे लिसा है, अत. इस सूनसे सूचित शेप अठारह अनियोगद्वारोका कुछ सक्षेपसे प्ररुपण करता हूँ। शेप अठारह अनुयोगद्वारोके नाम इस प्रकार है-निवन्धन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय, मोक्ष, सक्रम, लेश्या, लेश्याकर्म, लेश्यापरिणाम, सातासात, दीर्घतम्ब, भवधारणीय पुद्गलात्म, निवत्त-अनिधत्त, निकाचित, अनिकाचित, कर्मस्थिति, पश्चिम स्कन्ध और अल्पवहुत्व । ७ निवन्धन-इस अनुयोगद्वारकी आवश्यकता बतलाते हुए लिखा है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके द्वारा कर्मोका कथन किया जा चुका है और उनके कारणभूत मिथ्यात्व, असयम, कपाय और योगका भी कथन किया जा चुका है। अव उन कर्मोंका व्यापार बतलानेके लिये निवन्धन अनुयोगद्वार माया है। ___इसमें बतलाया है कि ज्ञानावरणकर्म सव द्रव्योमें निवद्ध है क्योकि उसका एक भेद केवलज्ञानावरण केवलज्ञानका विरोधी है और केवलज्ञान त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायोसे पूर्ण छै द्रव्योको जानता है । किन्तु ज्ञानावरण सब पर्यायोमें निबद्ध नही है क्योकि ज्ञानावरणके भेद मतिज्ञानावरणादि सब द्रव्योको नहीं जानते और न सब पर्यायोको जानते है । दर्शनावरणकर्म आत्मामें ही निवद्ध है। यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो दर्शन और ज्ञान एक हो जायेगे । वेदनीयकर्म सुख व दु खमें निबद्ध है। मोहनीयकर्म आत्मामें निवद्ध है क्योकि जीवके सम्यक्त्व और चारित्र गुणको घातना उसका स्वभाव है । आयुकर्म भवसे निवद्ध है क्योकि भवधारण करना उसका लक्षण है। नामकर्मका विणाक पुद्गलनिवद्ध भी है, जीवनिवद्ध भी है और क्षेत्रनिबद्ध भी है । इसलिये वह तनसे निबद्ध है। गोत्रकर्म आत्मासे निबद्ध है और अन्तराय १. श्रुत्वा तयोश्च पार्वे तमशेप वप्पदेवगुरु ॥१७३॥ अपनीय महावन्ध पटखण्डाच्छेष पन्चखण्डे तु। व्याख्याप्रशस्ति च पण्ठ खण्डं च तत सक्षिप्य ॥१७४॥ पण्णां खण्डानामिति निष्पन्नाना । व्याख्याप्रशप्तिमवाप्य पूर्वपटखण्डतस्ततस्तस्मिन् । उपरितमबन्धनाथधिकारैरष्टादशविकल्पै । १८०॥ सत्कर्मनामधेय पष्ठ खण्ड विधाय सक्षिप्य । इति पण्णां खण्डाना प्रन्यसहस्रद्विसप्तत्या ॥१८॥'-श्रुताव ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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