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२३० : जैनसाहित्यका इतिहास धर्मका उपदेश देते है और वह अर्धमागधी भाषा समस्त आर्य-अनार्योके दुपायचौपाये, मृग, पशु, पक्षी और सरीसृपोके अपनी-अपनी भापारूपसे परिणमन करती है । अर्थात् ये तीर्थङ्करका ही अतिगय है।
किन्तु' तीर्थकर गणधरकी अपेक्षा थोटा ही कथन करते है उसका द्वादशागरूपमें विस्तार तो गणधर ही करते है । इसीसे गणधरके अभावमें भगवान् महावीरकी वाणी केवल ज्ञान होने के पश्चात ६६ दिन बाद खिरी। इसका कथन जयधवलाके प्रारम्भमें वीरसेन स्वामीने किया है।
ग्रन्यकर्ता गणधर तथा उत्तरोत्तरतत्रकर्ता आचार्योका कथन करते हुए वीरसेनस्वामीने प्रकृत षट्खण्डागमकी उत्पत्तिका पुन सक्षिप्त कथन किया है । फिर आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकारके भेदसे पांच उपक्रमोका कथन करके निक्षेप, नय आदिका कथन किया है, जैसा कि ग्रन्थके आदिमें कथन करनेकी आगमिक परम्परा रही है। इस सबके पश्चात् कृति-अनुयोगद्वारका व्याख्यान आरम्भ होता है।
वेदना खण्डके वेदनाकालविधानमें आयुकर्मकी उकृष्ट वेदना सूत्रकारने देवायु और नरकायुका उत्कृष्ट वध करनेवाले स्त्रीवेदी, पुरुपवेदी अथवा नपुसकवेदी कर्मभूमिया पचेन्द्रिय सज्ञी जीवके बतलाई है । उसका व्याख्यान करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है कि यहां भाववेद लेना चाहिये । ऐसा न लेनेसे द्रव्यस्त्रीवेदके साथ भी नरकायुके उत्कृष्ट बन्धका प्रसग आयेगा, किन्तु स्त्रिया छठे नरक तकका ही आयुबन्ध कर सकती है।'
श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार भी स्त्री यद्यपि मोक्ष जा सकती है किन्तु मरकर सातवें नरकमें उत्पन्न नही हो सकती।
वर्गणाखण्डके कर्म-अनुयोगद्वारमें ईयापिथकर्म और तप. कर्मका व्याख्यान करते हुए वीरसेन स्वामीने दोनोके सम्बन्धमें बहुत अच्छा प्रकाश डाला है । तथा प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अध कर्म, ईपिथकर्म, तप कर्म और क्रियाकर्म, इन छह कर्मोंका सत् , सख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगोके द्वारा ओघ और आदेशोसे कथन किया है। उसमें बतलाया है कि देवो और नारकियोमें प्रयोगकर्म, समवदानकर्म तथा क्रियाकर्म होते है । १. 'जिणभणिइ च्चिय सुत्त गणहरकरणम्मि को विसेसोत्य ? । सो तदविक्ख भासइ न
उ वित्थरओ सुयं किंतु ॥१११८॥ 'स तीर्थङ्करस्तदपेक्ष गणधरप्रज्ञापेक्षमेव किञ्चिदल्प
भापते, न तु सर्वजनसाधारण विस्तरत समस्तमपि द्वादशाङ्गश्रुतम् , विशे० मा २. क पा, मा १, पृ० ७५ । ३, पटखं., पु. ११, पृ. ११४ । ४, वही, पु. १३, पृ. ४८-८८ । ५. वही, पु. १३, पृ. ९१-१९६ ।