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२१६ : जनसाहित्यका इतिहास महत्त्व ___ जयधवलाकी अन्तिम प्रशस्तिमे वीरसेनके शिष्य जिनसेनने लिखा है'टीका तो वीररोनकृत है वाकी तो या तो पद्धति कहे जानेके योग्य है या पजिका कहे जानेके योग्य है' जिनसेनाचार्यका उक्त कथन कोरा श्रद्धा-भक्ति मूलक नही है किन्तु उसमें यथार्यता है। और उसका अनुभव सिद्धान्तके पारगामी ही नही साधारण ज्ञाता भी धवला और जयघवला टीकाके अवलोकनसे सरलता पूर्वक कर सकते है । इतनी बृहत्काय और शुद्ध सैद्धान्तिक चर्चाओसे परिपूर्ण अन्य टीका जैन परम्परामें तो दूसरी है नही, भारतीय साहित्यमें भी नही है । फिर ये टीकाएं तो प्राकृत-गद्यम निबद्ध है, जिनके बीचमे काही-कही संस्कृत की भी पुट है और वह ऐसी शोभित होती है जैसे मणियोके मध्यमे मूगेके दाने ।
जिनसेनके अनुसार सम्पूर्ण श्रुतको व्याख्याको अथवा श्रुतकी सम्पूर्ण व्याख्याको टीका' कहते है । यह लक्षण वीरसेनकृत टीकामोमें पूरी तरहसे घटित होता है । सम्भवतया वीरसेनको टीकाको देखकर ही जिनसेनने टीकाका उक्त लक्षण बनाया जान पटता है । सचमुचमे धवला और जयधवला जैन सिद्धान्तकी चर्चाओका आकर है। महाकर्मप्रकृतिप्राभत और कपायप्राभत सम्वन्धी जो ज्ञान वीरसेनको गुरुपरम्परासे तथा उपलब्ध साहित्यसे प्राप्त हो सका वह सब उन्होने अपनी दोनो टीकाओमें निबद्ध कर दिया है और इस तरहसे उनकी ये दोनो टीकाएं एक प्रकारसे दृष्टिवादके अगभूत उक्त दोनो प्राभृतोका ही प्रतिनिधित्व करती है । वे मूल पट्खण्डागम तथा चूणिसूत्र सहित कसायपाहुडका ऐसा अग वन गई और उन्होने उन्हे ऐसा आत्मसात् कर लिया कि उन्होने अपना २ स्त्रीलिंगत्व छोडकर सिद्धान्तका पुल्लिगत्व स्वीकार कर लिया और पट्खण्डागम सिद्धान्त धवलसिद्धान्तके नामसे तथा कसायपाहुड सिद्धान्त जयधवलसिद्धान्त के नामसे ख्यात हो गया। और इन्ही नामोसे उनका उल्लेख किया जाने लगा। इतना ही नही, किन्तु जो धवलटीकाके साथ षट्खण्डागम सिद्धान्तका पारगामी होता था उसे सिद्धान्तचक्रवर्तीके पदसे भी भूपित किया जाने लगा । ऐसी महत्त्वपूर्ण ये दोनो वीरसेनीया टीकाएं है ।
१. 'टीका श्रीवीरसेनीया शेषा पद्वति पञ्जिका ॥३९॥ ज०० प्रश० २. 'प्राय. प्राकृतभारत क्वचित्सस्कृतमिश्रया। मणिप्रवालन्यायेन प्रोक्तोऽय ग्रन्थ
विस्तर ॥३७॥ ज० ध० प्र० ३. 'कृत्स्राकृत्स्नश्रुतव्याख्ये ते टीकापन्जिके स्मृते ॥४०॥ ज० ध० प्रश० 1 ४. 'णउ बुज्झिउ आयमसद्दधामु । सिद्ध तु धवलु जयधवलु णाम ॥-म० पु० प्रा० ।