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तृतीय अध्याय मूलागम-टीकासाहित्य
प्रथम परिच्छेद
घवला-टीका कसायपाहुड और छक्खंडागम पर विशाल टीकाएं लिखी गयी है । यह टीका-साहित्य अपने गुण और परिमाण दोनो ही दृष्टियोसे इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसे ग्रन्थोकी सज्ञाएं प्राप्त है। किसी भी विषयका टीका-साहित्य तब लिखा जाता है जब मूल ग्रन्थोका ज्ञान लुप्त होने लगता है और आगमकी वशवर्तिता अनिवार्य हो जाती है। दिगम्बर परम्परामें उक्त दोनो मूलागमोपर आचार्य कुन्दकुन्दसे ही टीकाएँ लिखी जाने लगी थी। शामकुण्ड, तुम्बूलराचार्य, वप्पदेव वीरसेन आदि अनेक आचार्योंने टीकाएँ लिखी।
इन्द्रनन्द्रिने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि वप्पदेवके पश्चात् कुछ काल बीत जानेपर सिद्धान्तोके रहस्य ज्ञाता एलाचार्य हुए। ये चित्रकूटके निवासी थे । इनसे आचार्य वीरसेनने सकल सिद्धान्तका अध्ययन किया। तत्पश्चात् गुरुकी अनुज्ञासे वाटकनामके आनतेन्द्र जिनालयमें षट्खण्डसे पहले व्याख्याप्रज्ञप्तिको प्राप्त कर आगेके बन्धन आदि अठारह अधिकारोके द्वारा 'सत्कर्म नामक छठे खण्डकी रचना की । और इसको पहलेके पाँच खण्डोमें मिलाकर छह खण्ड किये।
धवला-टीका नामकरण
वीरसेनने पूर्वोक्त छह खण्डो पर बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण सस्कृतमिश्रित प्राकृत-भाषामें 'धवला' नामक टीका लिखी । इस टीकाके नामकरणका कारण यह प्रतीत होता है कि अमोघवर्षकी उपाधि 'धवल' होनेके कारण इस टीकाका नाम उनकी स्मृतिमें रखा गया है। दूसरी बात यह है कि यह टीका अत्यन्त विशद और स्पष्ट है, इसी कारण इसे 'धवला' कहा गया ज्ञात होता है । तीसरी बात यह है कि यह टीका कार्तिक मासके धवल-शुक्ल पक्षकी त्रयोदशीको समाप्त हुई थी, अतएव सम्भव है कि इसी निमित्तसे उक्त नामकरण हुआ है।
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श्रुतावतार, पद्य १७७-१८४ ।