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________________ २१२ : जैनसाहित्यका इतिहास अनादि मिथ्यादृष्टि जीय छब्बीस प्रकृतियोकी सत्ता वाला होता है। अठाईस प्रकृतियोमेसे अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोभका विसंयोजन करने वाला सम्यग्दृष्टि चोवीरा प्रकृतियोकी सत्ता वाला होता है। मिथ्यात्वका क्षय होने पर और सम्यक्त्यप्रकृति तथा राम्यमिथ्यात्वप्रकृतिके शेष रहने पर मनुष्य सम्यग्दृष्टि तेईग प्रकृतियोको विभक्ति वाला होता है। मिथ्यात्व तथा मम्यक् मिथ्यात्वका क्षय होने पर और मम्यक्प्रकृतिके शेप रहने पर मम्यग्दृष्टि मनुष्य वाईस प्रकृतियोकी विभक्ति वाला होता है। दर्गनगाहनीयका क्षय करने वाला जीव इक्कीस प्रकृतियोकी विभक्ति वाला होता है । नौवें गुणस्थानमे अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया. लोभका क्षपण करने वाला सयमी मनुष्य तेरह प्रकृतियोकी विभक्ति वाला होता है। फिर उमी गुणस्थानमें नपुंसकवेदका क्षय करनेपर वारह प्रकृतियोंकी, स्त्रीवेदका क्षय करने पर ग्यारह प्रकृतियोकी, छह नोकपायोका क्षय करनेपर पांच प्रकृतियोकी, पुरुषवेदका क्षय करनेपर चार प्रकृतियोकी, तथा क्रमसे सज्वलन क्रोध, मान और मायाका क्षय करनेपर तीन, दो और एक विभक्ति वाला होता है । एक विभक्ति वालेके केवल एक सज्वलनलोभकपाय शेप रहती है। इसका विनाश कृष्टिकरणके द्वारा किया जाता है। चूणिसूत्रकारने इन्ही प्रकृतियोके स्थितिसत्व, अनुभागसत्व, प्रदेशसत्व आदिका कथन अनुयोगहारोसे किया है। किन्तु उन्होने सभी अनुयोगद्वारोका कथन नही किया । जहाँ जिनका कथन आवश्यक समझा वहीं उनका कथन किया है । समस्त कथन इतना अधिक परिभापाबहुल है कि कर्मसिद्धान्तके अभ्यासी पाठकके लिये भी दुरूह है । उस सवका परिचय कराना भी कष्टसाध्य है। फिर भी कुछ कम दुरुह विपयोका परिचय कराते है___ बन्धक अधिकारमें आगत सक्रम-अधिकारमें मोहनीयके उक्त २८ आदि प्रकृतिस्थानोके सक्रम पर भी विचार किया गया है। प्रत्येक प्रकृतिसत्वस्थानकी प्रकृतिया वतलानेके साथ किस स्थानका सक्रम होता है और किसका नही होता इसका स्पष्टीकरण किया है। इस सक्रम-अधिकारको आचार्य गुणधरने भी विस्तारसे लिखा है और चूर्णिसूत्रकारने भी उसे यथानुरूप स्पष्ट किया है। इसके स्पष्टीकरणके लिये उन्होने स्थानसमुत्कीर्तन, सर्वसक्रम, नोसर्वसक्रम, उत्कृष्टसक्रम, अनुत्कृष्टसनम, जघन्यसंक्रम, अजघन्यसक्रम, सादिसक्रम, अनादिसक्रम, ध्रुवसक्रम, अध्रुवसक्रम, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, सन्निकर्ष, अल्पबहुत्व, भुजकार, पदनिक्षेप और वृद्धि अनुयोगद्वार सूचित किये है । किन्तु विवेचन केवल स्थानसमुत्कीर्तन, काल अन्तर और अल्पबहुत्व
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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