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१९६ : जैनसाहित्यका इतिहास
अनुयोगद्वार तथा वर्गणासण्डके स्पर्श अनुयोगद्वार, कर्म अनुयोगद्वार, प्रकृति अनुयोगद्वार ओर वन्धन अनुयोगद्वारके प्रारम्भमें नागनिक्षेप और स्थापनानिक्षेपके लक्षणपरक सूत्रोको देस जाइये, कृति, स्पर्श आदि शब्दोके भेदके सिवाय उनमें कोई भेद नही है । किन्तु यतिवृषभने अपने चूर्णिसूयोमे आवश्यकतानुसार निक्षेपयोजना की, यथा- 'पेज्ज णिक्सियन्त्र -- णामपेज्ज, ठत्रणपेज्ज, दव्वपेज्ज, भावपेज्ज चेदि ।' (क० पा०सु० पृ० १६) । 'दोसो णिक्सिवियन्वो णामदोसो, ठवणदोसो, दव्वदोसो, भावदोसो ।' ( पृ० १९), किन्तु सिवाय नोआगमद्रव्यनिक्षेपके किसी निक्षेपका स्वरूप या उदाहरण नही दिया। इससे कसायपाहुडकी तरह ही चूणिसूत्रोकी भी सक्षिप्त शब्दरचना द्योतित होती है। साथ ही ऐसा भी प्रकट होता है कि भूतबलि - पुष्पदन्ताचार्यको पट्गण्डागम के सूत्रोकी रचना करते हुए इस बातका ध्यान था कि जहाँ तक शक्य हो, सूत्ररचना स्पष्ट हो, जिससे उसके अध्येताको उसे समझने में कठिनाई नही हो, इसीलिये उन्होने शव्दलाघवपर विशेष ध्यान नही दिया और न पुनरुक्तिको दोष माना और ऐसा शायद उन्होने इसलिये किया— क्योकि बचे- सुचे महाकर्मकृतिप्राभृतके भी एकमात्र ज्ञाता घरसेनाचार्यका स्वर्गवास हो चुका था और अब आगे श्रुतज्ञानकी परम्पराके श्रोतका अन्त आ गया था ।
किन्तु यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोमें हम वह बात नही पाते। उनके द्वारा यद्यपि कसायपाहुडकी गाथाओका रहस्य खुलता है किन्तु स्वय उनका रहस्य खोलनेके लिए व्याख्याकारोकी आवश्यकता है । इससे ऐसा लगता है कि या तो यतिवृपभके सामने श्रुतविच्छेदका वैसा भय उपस्थित नही हुआ था या उनकी शैली ही ऐसी थी ।
एक बात और भी उल्लेखनीय है - 'चूणिसूत्र में केवल चित्रकर्म, काष्ठकर्म और पोतकर्मका उल्लेख मिलता है । किन्तु पट्खण्डागमके स्थापनानिक्षेप विषयक सूत्रमें काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोत्तकर्मके सिवाय लेप्यकर्म, लेण्णकर्म, सेलकर्म, गृहकर्म, भित्तिकर्म, दन्तकर्म और भेडकर्मका भी निर्देश है ।
इसी तरह जयघवलामें ही एक दूसरे स्थानमें चूर्णिसूत्रके साथ जीवद्वाणका विरोध बतलाते हुए कहा है- 'यदि कहा जाय कि आठ समय अधिक छह महीना नियमके बलसे एक-एक गुणस्थानमें जीवोके सचयका समानरूपसे कथन
१ 'आदेसकसाएण जहा चित्तकम्मे लिहिदो । एवमेदे कट्ठकम्मे वा पोत्तकम्मे वा ।' क० पा० सू० पृ० २४ । २. 'ण च जीवट्ठाणसुत्तेण अट्ठसमयाहियछमासनियमवलेण एगेगगुण ठाणम्मि जीवसचय सरिसभावेण परूवणेण सह विरोहो, पुधभूदआइरियाण मुहविणिग्गयमेत्तेण दोन्ह थपभावमुवगयाण विरोहाणुववत्तीदां ।' क० पा० भा० २, पृ० ३६१ ।