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चूणिसूत्र साहित्य · १९५ 'अजुसूत्रनयकी अपेक्षा क्रोध द्वैप है, मान न ढेप है न पेज्ज है, माया न द्वेप है न पेज्ज है, किन्तु लोभ पेज्ज है।' शब्दनयकी अपेक्षा मोघ द्वेप है, मान द्वेप है, माया द्वप है और लोभ द्वीप है। क्रोध मान माया पेज्ज नही है किन्तु लोभ कयचित् पेज्ज है।
इसप्रकार चूर्णिसूत्रकारने गाथासूत्रकारके द्वारा प्रश्नरूपसे निर्दिष्ट विषयका ही नयदृष्टिमे विवेचन किया है। मत जैन आगमिक परम्पराको यह विषयविवेचनपद्धति गाथासूत्रकारसे भी प्राचीन प्रतीत होती है। संभव है पूर्वोका विवेचन इमी शैलीमें हो।
वर्तमान श्वेताम्बरमान्य मूलसूत्रोमें हम इम पद्धतिके दर्शन नहीं होते। किन्तु अनुयोगद्वारसूत्रमें निक्षपयोजनाका क्रमबद्ध विवान विस्तारसे मिलता है और उसमें नयोका भी प्रयोग किया गया है। असलमे अनुयोगद्वारसूत्र, जैसा कि उसके नामसे प्रकट है-अनुयोगसे ही सम्बन्ध रखता है। प्रस्तुत अनुयोगद्वारसूत्रकी उत्थानिकामें उसके टीकाकार हेमचन्द्र मलधारीने लिखा है कि जिनवचनमें प्राय आचार आदि समस्त श्रुतका विचार उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नयोके द्वारा होता है और इस अनुयोगद्वार में उन्ही उपक्रम आदि द्वारोका कथन है।' अतः जिनवचनके व्याख्यानकी परिपाटी, जिसका अनुसरण गाथासूत्रकार और चणिसत्रकारने किया है उसीका विवेचन अनुयोगद्वारमें मिलता है, जो उस परिपाटीका ही समर्थक है । नियुक्तियोमें भी निक्षेप योजनाका विधान मिलता है। किन्तु प्रकृत विपय कपायमें निक्षेपयोजनाका विधान विशेषावश्यकभाष्यमें ही देखनेको मिलता है।
छक्खंडागम और चूर्णिसूत्रोंकी तुलना छक्खडागम और चूर्णिसूत्रकी तुलनाकी दृष्टिसे अन्य भी दो-एक बातें उल्लेखनीय है । जिस तरह छक्खडागममें निक्षेप और नय-योजना की गई है, चूणिसूत्रोमें भी की गई है।
किन्तु दोनोमें अन्तर है। भूतवलिने वेदनाखण्ड और वर्गणाखण्डके अनुयोगद्वारोमें निक्षेपयोजना करते हुए प्रत्येक निक्षेपका स्वरूप स्पष्ट रूपसे बतलाया है और उसमें पुनरुक्तिका भी ख्याल नही किया है। इसके प्रमाण रूपमें कृति
१ जिणपवयणउप्पत्ती पवयण एगठिया विभागो य । दारविही य नयविही वक्खाण विही य अणुओगो ।।१२५॥ नाम ठवणा दविए, खित्ते, काले वयण भावे वा । एसो अणुओगस्स निक्खेवो होई सत्तविहो ॥१२९॥ जत्थ य ज जाणिज्जा निक्खेव निक्खिवे
निरवसेस । जत्थऽवि य न जाणिज्जा चउक्कम निक्खिवे तत्थ । आ० नि० ॥४॥ २ जिनवचने हयाचारादि श्रुत प्राय सर्वमप्युपक्रमनिक्षेपानुगमनयद्वारे विचार्यते। प्रस्तुत
शास्त्रे च तान्येवोपक्रमादि द्वाराण्यभिधास्यन्त' । अनु० टी० ।