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चूर्णिसूत्र साहित्य १७९ उदाहरणके लिये मूलपयडि' विभत्तिमें एक चूणिसूत्र केवल दो का अक रूप है । इसके सम्बन्धमें पीछे लिखा है।
शिष्यने शका की कि वह दो का अंक क्यो रखा है ? जयधवलाकारने उत्तर दिया-अपने मनमें स्थित अर्थका ज्ञान करानेके लिये चूर्णिसूत्रकारने यहाँ दो का अक रखा है । इसपर शिष्यने पुनः पूछा-उस अर्थका कथन अक्षरोसे क्यो नही किया ? तो जयधवलाकारने उत्तर दिया-इस प्रकार वृत्तिसूत्रोका अर्थ कहनेसे चूणिसूत्र ग्रन्थ वेनाम हो जाता, इस भयसे चूणिसूत्रकारने यहां अक द्वारा अपने हृदयस्थित अर्थका कथन किया। ___ जयधवलाकारने चूर्णिसूत्रोको देशामर्षक' कहा है अत उन्होने जगह-जगह लिखा है कि इससे सूचित अर्थका कथन उच्चारणावृत्तिके साहाय्यसे और एलाचार्यके प्रसादसे करता हूँ। इन बातोसे चूर्णिसूत्रोकी सक्षिप्तता और अर्थबहुलतापर प्रकाश पडता है, किन्तु सक्षिप्न और अर्थपूर्ण होनेपर भी चूर्णिसूत्रोकी रचनाशैली विशद और प्रसन्न है । भाषा और विषयका साधारण जानकार भी उनका पाठ सुगमतापूर्वक कर सकता है । चूणिसूत्रोकी व्याख्यानशैलीसे अभिप्राय यह है कि चूर्णिसूत्रोके द्वारा गाथासूत्रोके व्याख्यानकी क्या शैली है ? आगे उसपर प्रकाश डाला जाता है।
यह हम पहले लिख आये है कि कसायपाहुडकी सभी गाथाओपर चूर्णिसूत्र नही रचे गये है, कुछ गाथाएँ ऐसी भी है जिनपर चूर्णिसूत्र नहीं है । कसायपाहुडकी समस्त गाथासख्या २३३ है । इनमें १८० मूलगाथा है, शेष ५३ सम्बन्धगाथा आदि है । इन ५३ गाथाओमें से केवल तीनपर ही चूणिसूत्र है १२ सम्बन्ध ज्ञापक गाथाओपर, ६ अद्धापरिमाणनिर्देश सम्बन्धी गाथाओपर और सक्रमवृत्तिसम्बन्धी ३५ गाथाओमॅसे ३२ गाथाओ पर चूणिसूत्र नही है । और इस तरह २३३ गाथाओमेंसे ५० पर कोई चूर्णिसूत्र नहीं है।
जिन ५० गाथाओपर कोई चूणिसूत्र नहीं है उन्हे भी दो भागो में बांटा जा सकता है । सक्रमवृत्तिसम्बन्धी बत्तीस गाथाओका उत्थानिकासूत्र और उपसहार सूत्र है। इन गाथाओकी क्रमसख्या २७ से ५८ तक है। २७ वी गाथाके प्रारम्भका चूणिसूत्र इस प्रकार है-'एत्तो पयडिहाण सकमो, तत्थ पुव्व गम१. 'जइवसहाइरियेण एसो दोण्हमको किमहमेत्थ ठविदो ? सगहियट्ठियअत्थस्स जाणा
वणहूँ। मो अत्थो अक्सरेहि किण्ण परूविदो वित्तिसुत्तस्स अत्यै भण्णमाणे णिण्णामो
गथो होदित्ति भएण ण परूविदो-क० पा०, भा॰ २, पृ० १४ । २. 'एदेण वयणेण सुत्तस्स देसामासियत्त जेण जाणाविद तेण चउण्ह गईण उत्तुच्चारणावलेण
एलाइरियपसाएण च सेसकम्माण परूवणा कीरदे'--ज. प. प्रे० का०, पृ० ७५४५ । ३. क. पा. सू०, पृ००६०।