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१७८ : जैनसाहित्यका इतिहास 'लनिग' तहा पगितग' लिगकर यतिवपमने पापिलगिनामा मनयोगगरका निदेग किया है और यह भी लिगा है कि गयमानगर नामक अधिकारमें जो गाथा माई यही गागा ग अधिकार है। यहां गह मिग्ण दिलाना अनुचित न होगा कि जिन गाणामो माग शिकागेमे गागामओका विभाजन गिया गया है, और जिन पर नूणिगू नहीं है, नही गागानोमगे नम्बरको गायामें 'लवि तहा परित्तग्ग' पद पाया है। नौ उगीगे गह गहाकिनी अधिकागेंगे एक गाथा है । उमीका अनुगरण गतिवृषणने भी गिगा है।
तमा गणधरने सदापग्मिाणनिर्देगको अगिगार नही माना, मोर गतिवृषभने गाना है किन्तु उनमे भूणियोंमें मताग्मिाणनिग नामक मी अधिकारका गाग्यान नहीं है। गत गगनार्यमे गुरट भिन्न अधिकागेको मानार भी गतिवृषणने गभिमागे वर्णनगे प्राग गुणधगनाया ही अनुगरण किया है । चूणिमूत्रोको रचना और व्याग्यानगेली
खणिसूत्रोको रननागली ग्यम्प है। जिस तरह पसायपाहुटके गायागूगोका रहस्य मार्गमंच और नागहम्तीम द्वारा यतिवृषभ जान गये उगी तरह यतिवृषभके चूणिमूनो व्या राता निरन्तनाचार्यों और उच्चारणानाकिनारा ही जयघयलाकार जान गो थे, गयोकि नून तो गूनक होता है । २३३ गाथाओके द्वाग सूचित अर्थको सूचना यतिवृषभने ६००० प्रमाण निगमोन द्वारा दी
और उनका व्याख्यान उच्चारणाचायने १२००० प्रमाण उच्चारणा वृत्तिके द्वारा किया और उसका आश्रय लेकर ६०००० प्रमाण जयधवला टीका रची गई । अत: छ हजारमे ६० हजार समाये हुए है। इसीसे चूणिसूनोमें 'अणुचितिऊण णेदव' (चिन्तन करके ले जाना चाहिये), 'अणुमाणिय णेदव्य' (अनुमान करके घटित कर लेना चाहिये, 'वत्तव्य' (कहना चाहिये), 'विहामियन्वायो' (विशिष्ट वर्णन करना चाहिये) इस प्रकारकै शब्दोका बाहुल्य है।
जिस प्रकार चूणिसूनीकी सहायताके विना कसायपाहुडके सूत्रोका रहस्य समझना सम्भव नही है वैसे ही जयधवलाण्टीकाके साहाय्य विना चूणिसूत्रोके रहस्यको नहीं समझा जा सकता ।
१. 'लद्धि तहरा चरित्तस्सेत्ति अणिओगद्दारे पुन्च गमणिज्ज सुन्त।' त जहा। जा चैव
सजमासजमे भणिदा गाहा सा चेव पत्थ वि कायब्वा।' वही, पृ० ६६९ । २ 'लद्वीय संजमासंजमरस लद्धि तथा चरित्तस्स । दोसु वि ण्यका गाहा अठेवुवसामण
द्वाम्मि ॥६॥