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१७४ · जनसाहित्यका इतिहास
होता । चू कि गाथासूत्रोमे जिन अनेक विषयोकी पृच्छा मात्र और सूचना मात्र है उन सवका प्रतिपादन चूणिमूत्रोमें किया गया है। अतः एक तरहसे कसायपाहुड
और चूर्णिमूत्र दोनो मिलकर एक ग्रन्यरूप हो गये है और चूणिमूत्रकारका मत कसायपाहुणकारका मत माना जाता है । वीरगेनस्तामीने धवला टीकामें अनेक स्थानो पर चूर्णिसूत्रकारके मतको 'कमायपाहुइ"के नामसे उल्लिसित किया है । इतना ही नही किन्तु चूर्णिसूत्रको उद्धत करके उमे पाहुटसुत्त' नामगे अभिहित किया है। ___ धवला में अनेक स्थानो पर पट्यण्डागमके मत के सामने चूणिसूत्रकारके मतको रखकर वीरसेनस्वामीने दोनोको परस्पर विरुद्ध बतलाया है । और इस तरह चूणिसूत्रकारके मतोको पट्सण्डागमके मतोमे समकक्षता प्रदान की है । इसका प्रभाव हम उत्तर कालीन गन्यकारो पर भी पाते है । विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीके जैनाचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने धवलाके आधार पर लब्धिसार' नामक ग्रन्यकी रचना की थी। उममें उन्होंने पहले यतिवृपभके मतका निर्देश किया है तदनन्तर भूतवलिके मतका निर्देश किया है। यतिवृपभका मत उनके चूणिसूत्रोके आधार पर ही दर्शाया गया है यह कहने की आवश्यकता नहीं है । अत चूर्णिसूत्रोका महत्त्व स्पष्ट है। कसायपाहुड और चुण्णिसुत्त अधिकार विमर्श
यह लिख आये है कि दो गाथाओके द्वारा गुणधराचार्यने कपाय प्राभूतके अधिकारोका नाम निर्देश किया है। और वे दोनो गाथाएं गुणधरकृत ही मानी गई है उसमें कोई मतभेद नहीं है।
यति वृपभने भी अपने चूर्णिसूत्रोके द्वारा १५ अर्थाधिकारोका निर्देश किया है किन्तु गुणधर निर्दिष्ट अधिकारोसे उसमें अन्तर है।
जयधवला टीकामें इस पर आपत्ति करते हुए यह आशङ्का की गयी है कि गुणधर भट्टारकके द्वारा कहे गये पन्द्रह अधिकारोके रहते हुए उन्ही पन्द्रह अधिकारोको अन्य प्रकारसे बतलानेके कारण यतिवषभ गुणधर भट्टारकके दोष दिखाने वाले क्यो नही होते ? इसका परिहार करते हुए जयधवलाकारने लिखा है कि १. कसायपाहुडे सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणु भागो दसणमोहक्खवग मोत्तण सम्बत्थ
होदित्ति परूविदत्तादो वा णव्वदे-पट्ख, पु० १२, पृ० ११६, पृ० १२९, पृ० १३८ । २ पट० पु०१२, पृ० २२१ । 'एसो पाहुड चूणिसुत्ताभिप्पाओ।- पटख, पु. ६,
पृ० ३३१ ३ 'कसायपाहुडसुत्तेणेद सुत्त विरुन्झदि ति वुत्ते सच्च विरुज्झइ-पटख पु०८, ५० ५६ ।
'एसो मतकम्मपाहुडउवदेसो कसायपाहुड उवदेसो पुण .. पु० १, पृ० २१७ ।। ४ जदि मरदि सासणों सो णिरय तिरिक्ख गर ण गच्छेदि । णियमा देवगच्छदि जइवसह
मुणिंद वयणेण ।।३४९।। उवसमसेढीदो पुण ओदिण्णो सासण ण पाउणदि । भूतबलिणाह णिम्मल सुत्तस्स फुडोवदेसेण ॥३५०॥ लब्धि.