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२ जैनसाहित्यका इतिहास
इसलिये वह ग्रन्थकर्ता कहलाये ।
भगवान महावीरके निर्वाणके पश्चात् वही द्वादशागरूप, श्रुत गुरु-शिष्यपरपराके रूपमें मौखिक ही प्रवाहित होता रहा और श्रुतकेवली भद्रबाहुके समय तक अविच्छिन्न बना रहा । किन्तु उनके समयमे मगधमें बारह वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पडनेसे सघ-भेद हो गया । और इस सघ भेदके कारण सबसे अधिक क्षति द्वादशागरूप श्रुतको पहुँची । उस समय द्वादगाग श्रुतके एकमात्र प्रामाणिक उत्तराविकारी श्रुतकेवली भद्रवाह थे । किन्तु वौद्ध सगीतिकी तरह पाटलिपुत्रमें जो प्रथम जैन वाचना हुई कही जाती है वह उनकी अनुपस्थितिमे ही हुई । और उसमें भी केवल ग्यारह अगोका ही सकलन किया जा सका । किन्तु सबसे अधिक महत्त्व - पूर्ण वारहवा अग सकलित नही हो सका, क्योकि उसका जानकार श्रुतकेवली भद्रargh सिवाय दूसरा व्यक्ति नही था ।
भद्रवाहु के पश्चात् जैन संघ दिगम्बर और श्वेताम्बर पन्थमें विभाजित हो गया और दोनोकी गुरुपरम्परा भी भिन्न हो गई । सभवतया श्रुतकेवली भद्रबाहु - का वारसा दोनो ही परम्पराओको प्राप्त हुआ था । फलत दिगम्बर परम्परामें महावीरके निर्वाणके पश्चात् ६८३ वर्ष तक (विक्रम सम्वत्को दूसरी शताब्दी पर्यन्त) अगज्ञान यद्यपि प्रचलित रहा, किन्तु दिन-पर-दिन क्षीण होता चला गया ।
(श्वेताम्बर परम्परामे पाटलिपुत्रके बाद दूसरी वाचना मथुरामे की गई और वीर निर्वाणसे ९८० वर्षं अथवा ९९३ वर्ष पश्चात् वलभीकी तीसरी वाचनाके समय सकलित ग्यारह अगोको पुस्तकारूढ किया गया । किन्तु महत्त्वपूर्ण बारहवाँ अग तो नष्ट ही हो गया । उसीके भेद चौदह पूर्व थे । उन्हीके कारण बारहवे अगका महत्त्व था । श्वेताम्बर परम्परामे तो ग्यारह अगोकी उत्पत्ति पूर्वोसे ही मानी गई है । अत पूर्वोका महत्त्व निर्विवाद है ।)
इन्ही चौदह पूर्वोमे से दो पूर्वोके दो अवान्तर अधिकारोसे सम्बद्ध दो महान् ग्रन्थराज दिगम्बर परम्परामे सुरक्षित है । उनमे वर्णित विषय और उसका विस्तार भी पूर्वक महत्त्वको ख्यापन करता है । दिगम्बर परम्पराके जैनसाहित्यका इतिहास एक तरहमे इन्ही ग्रन्थराजोसे आरम्भ होता है । अथवा यह कहना उचित होगा कि दिगम्बर परम्परा के साहित्यका उद्गम पूर्वोके उन विशकलित अशोसे।" होता है जो उमे उत्तराधिकारके रूपमें प्राप्त हुए थे ।
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जैनसाहित्यका विस्तार
जैन साहित्य वहुत विस्तृत है, ऐसा कोई विषय नही है जिसपर जैनाचार्योंने अपनी लेसनो न चलाई हो । और इसका कारण यह है अपने समय मे उपस्थित किसी चर्चाको अव्याकृत कहकर
कि भगवान् महावीर ने
अलक्षित या उपेक्षित