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जैनसाहित्यका इतिहास
प्रथम अध्याय मूलागम-साहित्य प्रथम परिच्छेद
कसायपाहुड प्रास्ताविक
पूर्वमें प्रकाशित 'जन माहित्यका इतिहाग' (पूर्व पीठिका) प्रथम भागमें श्रुतावतार और श्रुत-परिचय विस्तारपूर्वक लिया गया है। अत यहाँ केवल मन्दर्भनिर्वाहके लिए जैन माहित्यके उद्गम, विस्तार और श्रुतावतारपर गक्षेपमें प्रकाश डाला जाता है। जैन साहित्यका उद्गम
जैनसाहित्यके उद्गमकी कथाका आरम्भ भगवान महावीरसे होता है, क्योकि पार्श्वनाथके कालके जनसाहित्यका कोई सकेत तक उपलब्ध नहीं है। फिर जैन परम्पराके अनुसार महावीर भगवानने जिम दिन धर्मतीयका प्रवर्तन करना प्रारम्भ किया उसी दिन पार्श्वनाथका तीर्थकाल समाप्त हो गया और भगवान महावीरका तीर्थकाल चालू हो गया। आज भी उन्हीका तीर्य प्रवर्तित है। अत' उपलब्ध समस्त जनसाहित्यके उद्गमका मूल भगवान् महावीरकी वह दिव्यवाणी है, जो १२ वर्षकी कठोर साधनाके पश्चात् केवलज्ञानकी प्राप्ति होनेपर लगभग ४२ वर्षकी अवस्थामें (ईस्वी सन्से ५५७ वर्प) श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके' दिन ब्राह्ममहूर्तमें राजगृहीके वाहर स्थित विपुलाचल पर्वतपर प्रथम वार निसृत हुई थी और तीस वर्ष तक निसृत होती रही थी। __उनकी उस वाणीको हृदयगम करके उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधरने बारह अगोमें निवद्ध किया था। उम द्वादशागमें प्रतिपादित अर्थको यत गणधरने भगवान महावीरके मुखसे श्रवण किया था, इससे उसे 'श्रुत' नाम दिया गया और भगवान महावीर उमके अर्थकर्ता कहलाये। गौतम गणवरने उसे ग्रन्थका रूप दिया, १ पटख० पु. १, पृ०६२-६३ ।
'तत्य कत्ता दुविहो, अत्यकत्ता गयकत्ता चेदि। तदो भावसुदस्स अत्यपदाण च तित्थयरो कत्ता। तित्थयरादो सुदपज्जापण गोदमो परिणदो ति दन्वसुदस्स गोदमो कत्ता । तत्तो गंवरयणा जादेशि।'
-पटख०, पु० १, पृ०६०-६५