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तृतीय परिच्छेद
महाबंध
कसायपाहुड और छक्खडागम इन दो मूल आगम-ग्रन्थोके रचयिता, रचनाकाल, विषयवस्तु एव उनके महत्वके विवेचनके पश्चात् तृतीय आगम-ग्रन्थ महाबधका विमर्श उपस्थित किया जा रहा है । यहाँ यह स्मरणीय है कि इस महावध सिद्धान्तग्रन्थके रचयिता भी आचार्य भूतवलि है। ___यह सिद्धान्त-ग्रन्थ छक्खण्डागमका अन्तिम खण्ड है । अपनी विशालता और विपयकी गम्भीरताके कारण इसे स्वतत्र सिद्धान्त-ग्रन्थकी सज्ञा प्राप्त है। ___ आचार्य वीरसेनने छक्खडागमपर अपनी धवलाटीका लिखी है, पर उनकी यह टीका पूर्वके पांच खण्डोपर ही है। इस छठे खण्डपर इनकी टीका नही है और न अन्य किसी आचार्यकी टीका प्राप्त है । इसका प्रधान कारण यही है कि आचार्य भूतबलिने इसे स्वय विवरणात्मक शैलीमें रचा है । जो ग्रन्थ इस शैलीमें लिखा जाता है, उसपर भाष्य या वृत्तियाँ बडी कठिनाईसे लिखी जाती है । यत सुगमपर विवृत्ति या भाष्य लिखनेमें सोकर्य रहता है और उसकी व्याख्या सुवोध होनेके कारण छोड दी जाती है । ___इस ग्रन्थकी शैली भी पूर्वके खण्डोकी सूत्रात्मक शैलीसे भिन्न है और इसका प्रमाण भी शेप पाँच खण्डोसे पांच गुना है । अत यह छठा खण्ड अपने पाँचो बडे भाईयोसे अलग पड गया है और महाबन्ध नामसे एक स्वतत्र ग्रन्थके रूपमें ही प्रकाशित हुआ है।
इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें महाबन्धको तीस हजार श्लोकप्रमाण बतलाया है और ब्रह्म हेमचन्द्रने चालीस हजार श्लोकप्रमाण बतलाया है । इसके रचयिता भी आचार्य भूतबलि है। उन्होने चतुर्थ वेदनाखण्डके आदिमें ४४ सूत्रोके द्वारा १ महाबन्धका प्रकाशन ७ भागोंमें भारतीय ज्ञानपीठ काशीकी ओरसे हुआ है। २ 'सूत्राणि पट्सहस्रग्रन्थान्यथ पूर्वसूत्रसहितानि । प्रविरच्य महाबन्धाय तत पष्ठक
खण्डम् ।।१३९॥ त्रिंशत्सहस्रसूत्रग्रन्थ व्यरचयदसौ महात्मा ।'-श्रुताव० ३ 'सदरीसहस्स धवलो जयधवलो सठिसहस्स बोधव्वो। महबधो चालीस सिद्ध तत्तय
अह वदे ॥८॥