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छक्खडागम १५१ से इस ग्रन्थका उद्धार किया। जो मुझसे स्खलित कथन हुआ हो, दृष्टिवादके ज्ञाता उसे शुद्ध करके कहें।' इस परसे इस कर्मप्रकृतिको भी उसी कर्मप्रकृति प्राभृतसे उद्धृत कहा जाता है, जिसके आधारपर पट्खण्डागमसूत्रोकी रचना हुई थी। किन्तु दोनोकी तुलना करनेसे यह प्रकट नहीं होता कि भूतबलि आचार्य जिस प्रकार महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके ज्ञाता थे, उस प्रकार कर्मप्रकृतिकार भी उसके ज्ञाता थे। हाँ, उसके कुछ अशोके वे ज्ञाता अवश्य थे, जिन्हें उन्होने दृष्टिवादके बचे अवशिष्टाशके रूपमें गुरुमुखसे श्रवण किया होगा और इसलिए कर्मप्रकृतिकी प्रथम गाथाकी उत्थानिकाकी चूर्णिमें चूर्णिकारने जो कुछ कहा है वही समुचित प्रतीत होता है । चूर्णिकारने कहा है कि-'दुषमाकालके कारण जिनकी वुद्धि, आयुष्य वगैरह घटता जाता है ऐसे आजकलके साधुजनोका उपकार करनेकी कामनासे आचार्यने विच्छिन्न हुए कर्मप्रकृति नामक महाग्रन्थके अर्थका ज्ञान करानेके लिए उसी सार्थक नामवाले कर्मप्रकृतिसग्रहणी नामक प्रकरणको आरम्भ किया है।' अत कर्मप्रकृतिप्राभृतका विच्छेद होनेपर ही उक्त कर्मप्रकृतिसग्रहणी नामक ग्रन्थ रचा गया है । उसका नाम कर्मप्रकृतिसग्रहणी है, यही उसके लिए उचित भी है । उसीको लघु करके कर्मप्रकृति नामसे उसकी ख्याति हुई है।