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छक्खंडागम १४१ ॥ २३९॥ अर्थात् आहारद्रव्यमेंसे निपुणतर, स्निग्धतर और सूक्ष्मतर स्कन्धको आहार ग्रहण करता है, इसलिए आहारक कहा जाता है ।
'तेयप्पहगुणजुत्तमिदि तेजइयं ।। २४० ॥ तेज और प्रभा गुणसे युक्त है, इसलिये तैजस कहते है। 'सव्वकम्माण पख्हणुप्पादय सुहदुक्खाणं बीजमिदि कम्मइय ॥२४१॥
सव कर्मोका प्ररोहण अर्थात् आधार, उत्पादक और सुख-दुखका बीज है, इसलिये इसे कार्मण कहते है। इस प्रकार नामनिरुक्तिमें पांचो शरीरोके नामोकी निरुक्ति की गई है।
प्रदेशप्रमाणानुगममें बतलाया है कि प्रत्येक शरीरके प्रदेश अभव्योसे अनन्तगुणे और सिद्धोके अनन्तवें भाग है। निषेकप्ररूपणाका कथन छ अनुयोगोके द्वारा किया है । वे छै अनुयोग है-समुत्कीर्तना, प्रदेशप्रमाणानुगम, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, प्रदेशविरच और अल्पबहुत्व ।
इन ? अनुयोगद्वारोका कथन करनेके पश्चात् पदमीमासानामक अनुयोगद्वारका कथन है। उसमें बतलाया है कि औदारिकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशानका स्वामी तीन पल्यकी आयुवाला उत्तरकुरु और देवकुरुका मनुष्य होता है ॥४१८॥
आगे अनेक सूत्रोके द्वारा उसकी अन्य विशेषताएं भी बतलाई है, जिनके होनेसे ही वह उत्कृष्टप्रदेशसंचयका स्वामी होता है।
वैक्रियिकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशानका स्वामी बाईस सागरकी स्थितिवाला आरण-अच्चुतकल्पका वासी देव होता है ।।४३१॥ उसकी भी अनेक विशेषताएं बसलाई है। आहारकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशानका स्वामी उत्तरशरीरको विक्रिया करने वाला प्रमत्तसयत मुनि होता है ।।४४६॥ तैजसशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी वह है जो पूर्वकोटिकी आयुवाला जीव सातवी पृथिवीके नारकियोकी आयुका बन्ध करके सातवी पृथिवीमें उत्पन्न हुआ, वहाँसे निकल कर पुन पूर्वकोटिकी आयुवालोमें उत्पन्न हुआ। उसी प्रकार मरण करके पुन सातवी पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ तेतीस सागरकी आयुको पालता हुआ रहा । चरम समयवर्ती वह जीव तैजस शरीरके उत्कृष्ट प्रदेशानका स्वामी होता है।
कार्मणशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी वह जीव होता है जो बादरपृथिवीकायिक जीवोमें दो हजार सागर कम कर्मस्थितिप्रमाणकाल तक रहता है । इत्यादि। ___इसी तरह प्रत्येकशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रके स्वामीका भी कथन किया है। अल्पवहुत्वमें बतलाया है कि औदारिकशरीरका प्रदेशाग्न सबसे थोडा है। उससे वैक्रियिकशरीरका प्रदेशाग्र असख्यातगुणा है ॥४९८॥ उससे आहारकशरीरका