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छक्खडागम १३१
है । गाथा न० १७ के द्वारा जधन्य और उत्कृष्ट अवधिज्ञानके स्वामित्वका कथन किया है। ___अवधिज्ञानसे सम्बद्ध ये गाथाएँ दिगम्बर परम्पराके माहित्यमें अन्यत्र भी पाई जाती है । गोम्मटसार जीवकाण्ड तोषट्खडागम और उसकी टीका धवलाके आधार पर ही सगृहीत किया गया है, अत उसमें तो कतिपय गाथाएँ यहीसे ली गई है। __ महाबन्धके आदिमें ये सव गाथाएं थोडेसे व्यतिक्रमके साथ पायी जाती है ।
चूँकि महाबन्ध भूतबलीकी ही रचना है, अत उनका वहाँ पाया जाना सम्भव है। गाथा न० १२, १३, १४ तिलोयपण्णत्तिके आठवें अधिकारमें पाई जाती है। गाथा न० १२-१३, मूलाचारके वारहवें अधिकारमें पाई जाती है। श्वेताम्बर परम्पगके नन्दिसूत्रमें भी ज्ञानकी चर्चा है । उसमें अवधिज्ञानके प्रकरणमें गाथाएँ ( गा० न० ५०, ५१, ५२, ५३, ५४ ) ऐसी है जो इस अनुयोगद्वारकी गा० ४-८ से मिलती है । कुछ पाठभेदके सिवाय और भेद नही है ।
षट्खण्डागमके वेदना और वर्गणा खण्डमें जो सूत्ररूपमें गाथाएँ आई है, हमारा विश्वास है कि वे गाथाएँ प्राचीन होनी चाहिये । इसीसे भूतवलिने उन्हें ज्यो-का-त्यो अपने ग्रन्थमे सूत्ररूपमें रख लिया है। सम्भवतया इसीसे उनमेसे कुछ गाथाएँ अन्यत्र भी उपलब्ध होती है । ___ मन पर्ययज्ञानावरणकर्मकी दो प्रकृतियाँ-ऋजुमतिमन पर्ययज्ञानावरण और विपुलमतिमन पर्ययज्ञानावरण बतलाई है। उनके प्रसगसे दोनो ज्ञानोके स्वरूप, विषय आदिका कथन सूत्रकारने विस्तारसे किया है। ____ मन पर्ययज्ञानका विपय बतलाते हुए सूत्रकारने कहा है-'मनके द्वारा मानसको जानकर मन पर्ययज्ञान दूसरोकी सज्ञा, स्मृति, मति, चिन्ता, जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुख, नगरविनाश, देशविनाश, जनपदविनाश, खेटविनाग, कर्वटविनाश, मडबविनाश, पट्टनविनाश, द्रोणमुखविनाश, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, क्षेम, अोम, भय और रोगरूप पदार्थोको जानता है ॥६३॥
केवलज्ञानका वर्णन करते हुए लिखा है-'स्वय उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शनसे युक्त भगवान देवलोक और असुरलोकके साथ मनुष्यलोककी आगति, गति, चयन, उपपाद, वन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके साथ
१ गो०जी०का०गा०, ४०३-४०६, ४०७, ४२५, ४२६, ४२९, ४३' । २ म०ब०, भा० १, पृ० ०१-२४ । ३ ति० प०, गा० ६८५, ६८६, ६८७ । ४ मूलाचा० अधि० १२, गा० न० १०७-११० ।