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________________ छक्खडागम • १०५ पर्यायको ही ग्रहण करता है, अत चूकि वेदनाका अर्थ सुख-दुख लोकमें लिया जाता है और वे सुख-दुख वेदनीयकर्मके सिवाय अन्य कर्मद्रव्योसे उत्पन्न नही होते । अत उदयागत वेदनीयकर्म ही ऋजुसूत्रनयसे वेदना है। इसमें भी ४ सूत्र है। ४. वेदनाद्रव्यविधान-वेदनारूप द्रव्यके विधान अर्थात् भेद उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य आदि अनेक है। उनका इस अनुयोगमें कथन है । इस अनुयोगद्वारके अन्तर्गत तीन अनुयोगद्वार है-पदमीमासा, स्वामित्व और अल्पवहुत्व । पदमीमासामें बतलाया है कि ज्ञानावरणीयद्रव्यवेदना उत्कृष्ट भी है, अनुत्कृष्ट भी है, जघन्य भी है और अजघन्य भी है। सूत्रको देशामर्पक मानकर धवलाकारने सादि, अनादि आदि अन्य भी नौ पदोकी योजना की है । तथा वतलाया है कि सप्तम पृथिवीके गुणितकर्माशिक नारकीके अन्तिम समयमे उत्कृष्ट द्रव्य पाया जाता है, अत ज्ञानावरणीयवेदना उत्कृष्ट भी है और उक्त नारकीके सिवाय अन्यत्र सर्वत्र उसका अनुत्कृष्ट द्रव्य पाया जाता है, अत अनुत्कृष्ट भी है । क्षपित कौशिक जीवके वारहवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें उसका जघन्यद्रव्य पाया जाता है, अत ज्ञानावरणीयवेदना जघन्य भी है और उक्त जीवके बारहवें गुणस्थानके अन्तिम समयको छोडकर अजघन्यद्रव्य पाया जाता है, अत अजघन्य भी है । शेष सातो कर्मोमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये। ___ स्वामित्व अनुयोगद्वारमें ज्ञानावरणीय आदि कर्मोके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट आदि पद किन-किन जीवोमें किस प्रकारसे सम्भव है, इस तरह उनके स्वामियोका कथन बहुत विस्तारसे किया है। और अल्पबहुत्वमें ज्ञानावरण आदि आठ कर्मोको जघन्य उत्कृष्ट और जघन्य उत्कृष्ट वेदनाओके अल्पबहुत्वका प्रतिपादन किया है। इस प्रकार पदमीमासा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारोके पश्चात् वेदनाद्रव्यविधानकी चूलिका आती है। इसके आरम्भिक सूत्रमें चूलिकाकी उपयोगिता अथवा विपयका प्रतिपादन करते हुए कहा है कि उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करते हुए कहा है कि 'बहुत-बहुत वार उत्कृष्ट योगस्थानोको प्राप्त करता है और जघन्य स्वामित्वका भी कथन करते हुए कहा है कि बहुत-बहुत बार जघन्य योगस्थानोको प्राप्त होता है । इन दोनो ही सूनोका अर्थ भलीभांति अवगत नहीं हो सका। इसलिए दोनो ही सूत्रोका निश्चय करानेके लिए योगविषयक अल्पबहुत्व और प्रदेशविषयक अल्पवहुत्वका कथन किया जाता है । यथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपयप्तिकका जघन्य योग सवसे थोडा है ॥१४५॥ वादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य योग उससे असख्यात गुणा है ॥१४६।। उससे दो इन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य योग असख्यात गुणा है ॥ १४७॥ उससे तेइन्द्रिय
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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