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१०४ जैनसाहित्यका इतिहास
वनहारस्सवि । सगहस्स ण एगो वा अणेगो वा अणुवउत्तो वा मनुवउत्ता वा आगमओ दव्वास्यं दव्वावस्सयाणि वा से एगे दव्वावस्तए । उज्जुसुअस्त एगो अणुवउत्तो आगमतो एग दव्वावस्सय पुहत्तं नेच्छइ । तिन्ह सद्दनयाण जाणए अणुवउत्ते अवत्यु, कम्हा ? नह जाणए अणुवउत्ते न भवति, जह अण्वउत्ते जाणए ण भवति, तम्हा णत्यि आगमभी दव्वावस्सयं । से त आगमओ दव्वावस्य ॥ १४ ॥ -- अनु० सू० ।
दोनो नययोजनाओ में कोई अन्तर नही है । कृतिका वर्णन सक्षिप्त है और अनुयोगद्वारका विस्तृत है ।
इस साम्यसे केवल यही प्रकट होता है कि जैन आगमिक शैली यही थी । अनुयोगोके प्रारम्भमें निक्षेप ओर निक्षेपोंमे नययोजना होना आवश्यक था और उसको लेकर विपयगत और शब्दगत साम्य था । किन्तु श्वेताम्वरीय आगमोमें इस शैली के दर्शन नहीं होते । सम्भव है यह दशैली पूवोंसे सम्बद्ध हो, क्योकि अनुयोग पूर्वगत श्रुतके भेद है ।
२ वेदना अनुयोगद्वार - वेदना अधिकार में १६ अनुयोगद्वार है - वेदनानिक्षेप, वेदनानयविभाषणता, वेदनानामविधान, वेदनद्रव्यविधान, वेदनक्षेत्रविधान, वेदनकालविधान, वेदनभावविधान, वेदनस्वामित्वविधान, वेदनवेदनविधान, वेदनगतिविधान, वेदनअनन्तरविधान, वेदनसन्निकर्षविधान, वेदनपरिमाण विधान, वेदनभागाभागविधान, और वेदनअल्पबहुत्वविधान । प्रथम सूत्र के द्वारा इन २ अनुयोगद्वारोका निर्देश किया गया है ।
१ वेदना निक्षेप - दो सूत्रोके द्वारा वेदनामे निक्षेपोका विधान किया है । वेदनाके चार भेद है-नामवेदना, स्थापनावेदना, द्रव्यवेदना और भाववेदना । वेदनाशब्दके अनेक अर्थ है । उनमेसे अप्रकृत अर्थका निराकरण करके प्रकृत अर्थको बतलाने के लिए यह अनुयोगद्वार है ।
२ वेदनानयविभाषणता -- सब व्यवहार नयाधीन है । अत नामादि निक्षेपगत व्यवहार किस नयके अधीन है, यह इस अनुयोगद्वार में वतलाया है । अर्थात् आगमिक शैली के अनुसार चार सूत्रोके द्वारो निक्षेपोंमें नययोजनाका कथन है । वेदनासे यहाँ बन्ध, उदय और सत्त्वरूप द्रव्यकर्मकी वेदना ली गई है ।
३ वेदनानामविधान - बन्ध, उदय और सत्त्वरूपसे जो कर्मपुद्गल जीवमें स्थित है उनमें किस-किस नयका कहाँ-कहाँ कैसा प्रयोग होता है इसके लिये यह वेदनानामविधान अधिकार है । कर्मके आठ भेद है, अत आठो कर्मोकी वेदनाके अनुसार वेदना भी आठ रूप है । सग्रहनयकी अपेक्षा आठो कर्मोकी एक वेदना है क्योकि सग्रहनय अनेकोको एकरूपसे ग्रहण करता है । और ऋजुसूत्रनय वर्तमान