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जैनसाहित्य और इतिहास
गाथा नं० १९९९-कम्मेत्यादि । अत्र स कर्ममल: मिथ्यात्वादिस्तोककर्माणि । सिद्धिं सर्वार्थसिद्धिमिति जयनन्दिटिप्पणे व्याख्या ।
इन सब उल्लेखोंसे मालूम होता है कि भगवती आराधनापर पूर्वोक्त उपलब्ध टीकाओंके अतिरिक्त और भी अनेक टीकायें थीं जो अपराजितसू रिके सामने थीं और पं० आशाधरके सामने भी। यह नहीं कहा जा सकता कि जो अपराजितसूरिको प्राप्त थीं वे ही पं० आशाधरको मिली थीं, अथवा वे उनके अतिरिक्त थीं। दोनोंकी संभावना है । पं० आशाधरने जयनन्दि और श्रीचन्द्रके दो टिप्पणोंका भी उपयोग किया है। साथ ही एक अमितगतिका तथा दूसरा किसी अज्ञातनाम आचार्यका, इस तरह दो संस्कृत पद्यानुवाद, भी उनके समक्ष थे ।
जिस ग्रन्थपर इतने अधिक टीका टिप्पण अनुवादादि किये गये, उसकी महत्ताके विषयमें क्या कहना है । बहुत कम ग्रन्थ ऐसे हैं जिनको इतनी अधिक टीकाओंका सौभाग्य प्राप्त हुआ हो ।