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आराधना और उसकी टीकायें
मेज्झाणीति' पठित्वा अमेध्ययोग्यात्स्वयमशुचीनि सन्तीत्यर्थमाहुः । अपरे पुनः सलिलादीनित्यादिसूत्रं सामान्येन व्याख्यायोत्तरसूत्रेण प्रकृतं देहाशुचित्वं अनुसंदधते।
गाथा १९६७ अन्ये तु वासे वासे इति पठित्वा वर्षे वर्षे इत्यर्थ व्याचक्रुः । अपरे मासे मासे इति पाठं मत्वा एव शब्दं विकल्पार्थमीषुः ।
गाथा १९६८-अन्ये 'एगंता सलोगा' इति पठित्वा एकान्तपरैः प्रायेणादृश्या इत्यर्थ प्रतिपन्ना; xxx अपरे तु 'दूरमगोढ़ा' इत्यस्य निषद्यास्थानस्तंभापेक्षया बह्वधः प्रवेशेत्यर्थमाहुः।
५ अमितगतिके संस्कृतपद्यानुवादके अतिरिक्त एक और पद्यानुवाद किसी आचार्यका है जिसके लगभग सौसे अधिक पद्य आशाधरजीने अपनी टीकामें 'उक्तं च ' ' तथोक्तं ' इत्यादिके रूपमें उद्धृत किये हैं। उनमेंसे एक यहाँ दिया जाता हैमूल-पडिचोदणासहणवायखुभिदपडिवयणइंधणाइद्धो ।
चंडो हु कसायग्गी सहसा संपजिलेजाहि ॥२६५ अनु०-प्रतिवचनेन्धनजनितः प्रतिकूलाचरणपवनसंचलितः ।
चण्डः कषायदहनः सहसा संप्रज्वलेत्पापः॥ इसी गाथाका अमितगतिकृत पद्यानुवाद यह है
वाक्यासहिष्णुतावात्या प्रेरितः कोपपावकः ।
उदेति सहसा चंडो भूरिप्रत्युत्तरेन्धनः ॥ २६५ पं० आशाधरजीके सामने मूलग्रन्थके कुछ टिप्पण भी थे। उनमेंसे एक तो श्रीचन्द्रकृत टिप्पणे था, जिसका उल्लेख गाथा नं० ५८९ की टीकामें इस प्रकार किया है-" श्रीचन्द्रटिप्पणके त्वेवमुक्तम् ।” - इसके सिवाय एक और टिप्पणकी खोज पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ( अनेकान्त वर्ष १, कि० १) ने आराधना-दर्पणसे लगाई है, जो जयनन्दिका है
१ इसी गाथाका अमितगतिकृत पद्यानुवाद भी साथ ही उद्धृत किया गया है जिससे और भी स्पष्ट हो जाता है कि यह दूसरा ही पद्यानुवाद है। ___ २ ये वही श्रीचन्द्र हैं जिन्होंने पुष्पदन्तके उत्तरपुराण और रविषेणके पद्मचरितके टिप्पण और पुराणसार आदि ग्रन्थ लिखे हैं, जो भोजदेवके समयमें १०८७ में थे और जिनके गुरुका नाम श्रीनन्दि था ।