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तीन महान् ग्रन्थकर्ता
२ अमोघवर्षके ही समयमें महावीराचार्यने गणितसारसंग्रह नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थकी रचना की थी। उसकी उत्थानिकामें उन्होंने अमोघवर्पके विषयमें कहा है कि अपने इष्ट जनों । प्रजा ) के हितैषी जिस अमोधवर्ष ( जिसकी वा व्यर्थ नहीं जाती) ने प्राणिरूप धान्यको प्रसन्न किया-सींचा और इति भीतिरहित किया; जिसकी चित्तवृत्तिरूपी अग्निमें पापरूप पराक्रम भस्म हो गया और तब जा वन्ध्यकोप हो गया; जो सार जगतको वशमें करके स्वयं दूसरोंके वश न हुआ और न अभिभूत या पराजित हुआ, अतएव जो अपूर्व मकरध्वज है; जो अपने पराक्रमसे चक्रियोंके चक्र (समूह) को आक्रान्त करके कृतकार्य हुआ और जो वेगपूर्वक उस चक्रिकाको अर्थात् शत्रुसमूहको नष्ट करके चत्रिका-भंजन कहलाया; जो विद्यारूप नदियोंका अधिष्ठान, मर्यादारूप वज्रवेदिकासे युक्त, रत्नगर्भ और यथाख्यात (सत्) चारित्रका महान् समुद्र है, जिसने एकान्त पक्षको विध्वस्त कर दिया है और जो स्याद्वादन्यायवादी है, उस नृपतुंग देव ( अमोघवर्ष ) का शासन वृद्धि को प्राप्त हो ।
१ प्रीणितः प्राणिसस्योघो निरीतिनिरवग्रहः ।
श्रीमतामोघवर्षण येन स्वेष्टहितैषिणा ।। ३ ।। पापरूपाः परा यस्य चित्तवृत्तिहविर्भुजि । भस्मसाद्भावमीयुस्ते वन्ध्यकोपो भवेत्ततः ।। ४ ।। वशीकुर्वन् जगत्सर्व स्वयं नानुवशः परैः । नाभिभूतः प्रभुस्तस्मादपूर्वमकरध्वजः ।। ५ ।। यो विक्रमक्रमाक्रान्तचक्रचकिकृतक्रियः। चक्रिकाभंजनो नाम्ना चक्रिकाभंजनोऽञ्जसा ।। ६ ॥ यो विद्यानद्यधिष्ठानो मर्यादावज्रवेदिकः । रत्नगर्भो यथाख्यातचारित्रजलधिर्महान् ।। ७ ।। विध्वस्तएकान्तपक्षस्य स्याद्वादन्यायवादिनः ।
देवस्व नृपतुंगस्य वर्द्धतां तस्य शासनम् ॥ ८ ॥ २ यह वही घटना है जिसका उल्लेख श० सं० ८३२ के शिलालेखमें । भूपालान् कण्टकाभान् वेष्टयित्वा ददाह ' शब्दोंमें और अमोघवृत्तिकी · अदहदमोघवर्षोऽरातीन् ' वृत्तिमें किया गया है । एक साथ बिगड़ खड़े हुए राजाओंके समूहको ही यहाँ 'चक्र' कहा गया है जिन्हें अमोघवर्षने नष्ट किया था। इसके लिए देखो ' शाकटायन और उनका शब्दानुशासन ' शीर्षक लेखका पृ० १६०