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जैनसाहित्य और इतिहास
अमोघवर्षने अपना मस्तक झुकाया और कहा कि आज मैं पवित्र हो गया वे पूज्य जिनसेन संसारके लिए कल्याणकारक हो । परन्तु केवल इतनेसे अमोघवर्षको जैनी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि अधिकांश हिन्दू राजा ऐसे ही हुए हैं जो प्रायः सभी धर्मों के साधु-रान्तोंका सत्कार किया करते थे । गुणभद्रने यह तो लिखा नहीं कि वे जैनधर्मके अनुयायी भी थे । अतएव इसके लिए कुछ और प्रमाण चाहिए।
१- ऊपर हम अमोघवर्षकी प्रश्नोत्तररत्नमालाका जिक्र कर आये हैं । एक तो उसके मंगलाचरणमें वर्द्धमान तीर्थकरको नमस्कार किया गया है और दूसरे उसमें अनेक बातें जैनधर्मानुमोदित ही कही गई हैं। इसस कमसे कम उस समय जब कि रत्नमाला रची गई थी, अमोघवर्ष जैनधर्मके अनुयायी हो जान पड़ते हैं ।
प्रश्नोत्तररत्नमालाका तिब्बती भाषामें एक अनुवाद हुआ था जो मिलता है और उसके अनुसार वह अमोघवर्षकी ही बनाई हुई है। ऐसी दशामें उसे शंकरीचार्यकी, शुकयतीन्द्र की या विः लसूरिकी रचना बतलाना जबर्दस्ती है।
१ यस्य प्रांशुनखांशुजालविसरद्धारान्तराविर्भवत् पादाम्भोजरजः पिशङ्गमुकुटप्रत्यग्ररत्नद्युतिः । संस्मर्ता स्वममोघवर्षनृपतिः पृतोऽहमद्यत्यलं
स श्रीमान् जिनसेनपृज्यभगवत्पादो जगन्मङ्गलम् ।। ८ २ प्रणिपत्य वर्द्धमानं प्रश्नातररत्नमालिकां वश्थे ।
नागनरामरवन्द्यं देवं देवाधिपं वीरम् ।। ३ त्वरितं किं कर्तव्यं विदुपा संसारसन्ततिच्छेदः । किं मोक्षतरोजि सम्यग्ज्ञानं क्रियासहितम् ।। ४ ।। को नरकः परवशता किं सौख्यं सर्वसङ्गविरतिर्या ।
किं सत्यं भूतहितं किं प्रेयः प्राणिनामसवः ॥ १३ ॥ ४ शंकराचार्य और शुकयतीन्द्रो नामकी जो प्रतियाँ मिली हैं उनमें छह सात श्लोक नय मिला दिये गये हैं परन्तु वे वसन्ततिलका छन्दमें हैं जो विल्कुल अलग मालूम होते हैं और उनके अन्त्य-पद्यों में न शुकयतीन्द्रका नाम है और न शंकरका ।
५ श्वेताम्बर साहित्यमें ऐसे किसी विमलसूरिका उल्लेख नहीं मिलता जिसने प्रश्नोत्तररत्नमाला बनाई हो । विमलमूरिने अपने नामका उल्लेख करनेवाला जो अन्तिम पद्य जोड़ा है वह आछिन्दमें है, परन्तु ऐसे लघु प्रकरण-ग्रन्थोंमें अन्तिम छन्द आम तौरसे भिन्न होता है जैसा कि वास्तविक प्र० र० मालामें है और वही ठीक मालूम होता है।