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जैनसाहित्य और इतिहास
चित्रकूट यही हो । शीलविजयजीने अपनी तीर्थयात्रामें चित्रगढ़, वनौसी ( वनवास ) और बंकापुरका लगातार एक साथ वर्णन किया है और इससे इन स्थानोंके बीच बहुत ज्यादा अन्तर नहीं मालूम होता। बंकापुर वही है जहाँपर उत्तरपुराणका पूजा-महोत्सव हुआ था और वनौसी वही है जहाँपर बंकापुरसे पहले राजधानी थी। इस तरह यदि चित्रकूट चित्तलदुर्ग ही है, ता वाटग्राम वनवासी
और चित्तलदुर्गके बीच कहीं पास ही होगा। __ आधुनिक चित्तौड़ का ( मेवाड़का ) भी प्राचीन नाम चित्रकूट का ही अपभ्रंश रूप चित्तौड़ है। परन्तु यह स्थान कर्नाटकसे इतनी अधिक दूर है कि उसके एलाचार्यका चित्रकूट होने की संभावना बहुत ही कम है।
वीरसेन और जिनसेनक रहनेका प्रधान स्थान कौन-सा था, इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं मिला है, परन्तु शायद वह वनौसी या वनवासी होगा जो पहले वनवास देशकी राजधानी था और पीछे जहाँसे राजधानी हटाकर बंकापुरमें आ गई थी जहाँ कि लोकसनने उत्तरपुराणकी पूजा की थी । अमोघवर्षकी राजधानी मान्यखेटमें उनके रहनेका कोई उल्लेख नहीं मिला । हाँ, मान्यखेट राजधानीको एकाधिक वार अपने चरणोंसे उन्होंने पवित्र अवश्य किया होगा। क्योंकि अमोघवर्ष जिनसेनके भक्त थे।
समकालीन-राजा इन तीन महान् ग्रन्थ-कर्ताओंके समयमें राष्ट्रकुट वंशके तीन महान् राजाओंका राज्य रहा,---जगत्तुंगदव, अमोघवर्ष और अकालवर्प ।
जगत्तुंगदेव-वीरसेन स्वामीने श० सं० ७३८ में जब धवला टीका समाप्त की, तब जगत्तुंगदेव ( गोविन्द तृतीय ) ने सिंहासन छोड़ दिया था
और बोदणराय या अमोघवर्ष राज्य कर रहे थे। जगत्तुंगका उल्लेख करनेका कारण यह जान पड़ता है कि धवलाका प्रारंभ उन्हींके समयमें हुआ था। १ देखो, ' दक्षिणके तीर्थक्षेत्र ' शीर्षक लेख पृ० २३६
१ अठतीसम्हि सतसए विकमरायंकिए सु-सगणामे । वासे मुतेरसीए भाणुविलग्गे धवलपक्खे ॥ ६ ॥ जगतुंगदेवरज्जे रियम्हि कुंभम्हि राहुणा कोणे । सूरे तुलाए संते गुरुम्हि कुलविलए होते ॥ ७ ॥