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________________ जैनसाहित्य और इतिहास अर्थात् अनेक (दो) प्रकार के सन्धान ( निशाना और अर्थ ) वाले और हृदयमें बारंबार चुभने वाले धनंजय (अर्जुन और धनंजय कवि ) के वाण ( और शब्द ) कर्णको ( कुन्तीपुत्र कर्णको और कानोंको ) प्रिय कैसे होंगे ? यह पद्य वादिराजसूरिने अपने पार्श्वनाथचरित काव्य के प्रारंभ में लिखा है' । कविका समय महाकवि धनंजयने स्वयं अपने समयका कोई निर्देश नहीं किया है; परन्तु नीचे लिखे प्रमाणोंसे उनके समयपर प्रकाश पड़ता है । १ ऊपर जिन कवियों के प्रशंसापरक पद्य उद्धृत किये गये हैं उनमें से वादिराजने अपना पार्श्वचरित वि० सं० १०८२ में समाप्त किया था और महाकवि राजशेखर प्रतीहारराजा महेन्द्रपालदेव के उपाध्याय थे । महेन्द्रपालका समय वि० सं० ९६० के लगभग है अतएव वे इनसे भी पहले हुए हैं 1 २ अभी अभी एक नया प्रमाण मिला है और वह यह कि भगवजिनसेनके गुरु वीरसेन स्वामीने अपनी धवला टीका ( पृ० ३८७ ) में जो वि० सं० ८७३ में समाप्त हुई थी धनंजयकी अनेकार्थनाममालाका नीचे लिखा श्लोक प्रमाणस्वरूप उद्धृत किया है हेतावेवं प्रकाराद्यैः व्यवच्छेदे विपर्ययः । ४६६ प्रादुर्भावे समाप्ते च इति शब्दं विदुर्बुधाः ॥ इससे यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि धनंजय विक्रमकी नौवीं शताब्दि के पूर्वार्धके बादके तो नहीं हैं और यदि नाममालाका 'प्रमाणमकलंकस्य' आदि पद्य स्वयं उनका लिखा हुआ है तो वे अकलंक से कुछ बादके हैं । पं० महेन्द्रकुमारजी शास्त्रीने अकलंकका काल वि० सं० ७९७ से ८३७ तक निश्चित किया है । अर्थात् विक्रमकी आठवीं शताब्दि के अन्तिम चरण से नव शताब्दि के पूर्वार्ध तक उनका समय समझना चाहिए । आचार्य जिनसेन प्रथम और द्वितीय दोनोंने अपने आदिपुराण और हरिवंशमें पुरा कवियोंकी स्तुति के प्रसंग में इस महाकविका उल्लेख नहीं किया, इसका कारण शायद यही हो सकता है कि धनंजय गृहस्थ थे मुनि नहीं । अन्यथा उनसे पूर्ववर्ती तो येथे ही । १ आचार्य प्रभाचन्द्र ने भी अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड में दिसन्धान काव्यका उल्लेख किया है। २ देखो, पट्खण्डागमकी प्रस्तावना पृ० ६२
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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