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________________ ४६२ जैनसाहित्य और इतिहास दुष्कर या कठिन है । जिस समय विद्वानोंका यह खयाल हो रहा था कि इस पद्मिनी या कमलिनी जैसी कृतिका प्रबोधक या खोल देनेवाला कोई नहीं है, उसी समय एक नरसिंह नामक सूर्य उदित हुआ और बड़े बड़े लोगोंसे उसके विषयमें सुना गया कि अतिशय दुर्गम काव्य भी नरसिंहको पाकर बिल्कुल सुगम हो जाता है और फिर स्तुतिविद्याके आश्रयसे किसकी बुद्धि नहीं चलने लगती या चंचल नहीं हो जाती ? इसीलिए उसकी ( स्तुतिविद्या या जिनशतककी) टीका जड़बुद्धि वसुनन्दि भी कर रहा है । सो ठीक ही है। संसारमें आश्रयसे तो प्रभाहीन भी महान् प्रभावाला हो जाता है । देखो न गिरिराज हिमालयके सहारे कौआ भी सोने जैसी छविको धारण कर लेता है । मेरी समझमें ऊपरके श्लोकोंका यही अभिप्राय है और इससे इस टीकाके कर्ता 'नरसिंह' नहीं किन्तु 'वसुनन्दि' जान पड़ते हैं । नरसिंह कोई बड़े भारी विद्वान् आचार्य थे जो कठिनसे कठिन काव्योंको सुगमतासे समझा सकते थे । सो एक तो उनकी सहायतासे और दूसरे स्वयं स्तुतिविद्याके प्रभावसे वसुनदि इस टीकाको बनानेमें समर्थ हुए। वृत्तिकारने आलंकारिक ढंगसे यही बात स्पष्ट की है। ___ मालूम नहीं, नरसिंहके साथ ' भट्ट ' विशेषण कहाँसे लगा दिया गया है और यदि नरसिंहको ही वृत्तिकर्ता माना जाय, तो फिर 'कुरुते वसुनन्द्यपि' वाक्यका क्या होगा ? उसकी तो फिर कोई संगति ही नहीं बैठती। जान पड़ता है कि इन पद्योंका ठीक ठीक अभिप्राय समझमें न आनेके कारण ही भाषाटीकाकारने इस वृत्तिको अपनी कल्पनासे 'भव्योत्तमनरसिंहभट्टकृत' छपा दिया है । ग्रन्थकी मूल प्रतिमें यह लिखा होनेकी संभावना नहीं है। 'समझमें न आनेके कारण' मैं जान बूझकर कर लिख रहा हूँ और यह इसलिए कि भाषाकारने मूल ग्रन्थके अन्य सब श्लोकोंका भावार्थ तो लिख दिया है परन्तु इन पद्योंको बिल्कुल ही छोड़ दिया है। __ ग्रन्थके प्रारंभमें जो सूचना प्रकाशककी ओरसे दी गई है, उसमें लिखा है कि " जयपुरसे प्राप्त एक ही प्रतिसे इसका सम्पादन हुआ है, दूसरी प्रति नहीं मिली," परन्तु उसके ठीक आगेके ही पृष्ठमें 'इति पुस्तकान्तरे पाठः' टिप्पणी दी हुई है ! अर्थात् कोई दूसरी प्रति भी सम्पादकके समक्ष थी। गरज यह कि पुस्तकका प्रकाशन बहुत असावधानीसे हुआ है और इसलिए यह अनुमान होता है कि भाषाकारकी कृपासे ही वसुनन्दिकी यह टीका भव्योत्तम नरसिंहभट्टकृत बन गई है।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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