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आचार्य जिनसेन और उनका हरिवंश
ग्रन्थ-परिचय दिगम्बर सम्प्रदायके संस्कृत कथा-साहित्यमें हरिवंशचरित या हरिवंशपुराण प्रसिद्ध और प्राचीन ग्रन्थ है । उपलब्ध कथा-ग्रन्थों में समयकी दृष्टिसे यह तीसरा ग्रन्थ है । इसके पहलेका एक पद्मचरित है जिसके कर्ता रविषेणाचार्य हैं और दूसरा वरांगचरित है जिसके कर्ता जटा-सिंहनन्दि हैं और इन दोनोंका स्पष्ट उल्लेख हरिवंशके प्रथम सर्गमें किया गया है ।'
आचार्य वीरसेनके शिष्य जिनसेनका पार्वाभ्युदय काव्य भी हरिवंशके पहले बन चुका था, क्योंकि उसका भी उल्लेख हरिवंशमें किया गया है, इस लिए यदि उसको भी कथा-ग्रन्थ माना जाय, तो फिर हरिवंशको चौथा ग्रन्थ मानना चाहिए।
महासेनकी सुलोचना-कथाका और कुछ अन्य ग्रन्थोंका भी हरिवंशमें जिक किया गया है परन्तु वे अभीतक अनुपलब्ध हैं ।
हरिवंशका ग्रन्थ-परिमाण बारह हज़ार श्लोक है और उसमें ६६ सर्ग हैं । अधिकांश सर्ग अनुष्टुप् छन्दोंमें हैं । कुछ स!में द्रुतविलम्बित, वसन्ततिलका, शार्दूलविक्रीडित आदि छन्दोंका मी उपयोग किया गया है । बावीसवें तीर्थकर भगवान् नेमिनाथ और वे जिस वंशमें उत्पन्न हुए थे उस हरिवंशके महापुरुषोंका चरित लिखना ही इसका उद्देश्य है; परन्तु गौण रूपसे जैसा कि छयासठवें सर्ग (श्लोक ३७-३८) में कहा गया है चौवीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नव नारायण, नव बलभद्र और नव प्रतिनारायण, इस तरह त्रेसठ शलाका पुरुषोंका और सैकड़ों अवान्तर राजाओं और विद्याधरोंके चरितोंका कीर्तन भी इसमें किया गया है । इसके सिवाय चौथेसे सातवें सर्गतक ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोकोंका वर्णन तथा अजीवादिक
१ देखो श्लोक न० ३४-३५ । २ देखो श्लोक नं० ४० । ३ देखो श्लोक नं० ३३ ।