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________________ जैनसाहित्य और इतिहास निमित्त, चिकित्सा, मंत्रवाद, धातुवाद, आदि विद्याओं का उपयोग करते थे; सचित्त फूल पत्तों से पादार्चन, घिसे हुए चन्दनसे पादानुलेप, कुंकुमादिसे चरणांगराग, सोने चाँदीसे चरण- पूजा, सचित्त जलसे पाद प्रक्षालन, दूध-घी से चरण स्नान कराते थे, सभाओंमें व्याख्यान देते थे, सदैव एक ही स्थान में रहते थे, आदि । शायद इन्हीं आचरणोंको लक्ष्य करके पंडित आशाधरने अपने पूर्ववर्ती किसी विद्वानका कहा हुआ पूर्वोक्त लोक उद्धृत किया है जिसमें कहा है कि भ्रष्टचरित्र पंडितों और बटर मुनियोंने जिनचन्द्रका निर्मल शासन मलिन कर दिया । ३६६ इस तरह हमने देख लिया कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में चैत्यवासकी उत्पत्ति, उसका विकास और ह्रास लगभग एक ही ढंगसे हुआ । मनुष्य स्वभावने, देशकी परिस्थितियोंने और कालके प्रभावने भी दोनों सम्प्रदायों में लगभग एक-सा ही काम किया । तेरहपन्थका उदय हम ऊपर कह आये हैं कि विक्रमकी सत्रहवीं सदी में पं० बनारसीदासजीने दिगम्बर सम्प्रदाय के चैत्यवासियोंके विरोध में एक विधि-मार्ग जैसे स्वतंत्र पन्थकी नीव डाली, जो आगे चलकर तेरह पन्थ कहलाया । इसीका थोड़ा-सा परिचय देकर अब हम अपने इस बहुविस्तृत लेखको समाप्त करेंगे । तेरहपन्थ नाम जब प्रचलित हो गया, तब भट्टारकोंका पुराना मार्ग बीसपन्थ कहलाने लगा | परन्तु यह एक समस्या ही है कि ये नाम कैसे पड़े और इन नामोंका मूल क्या है । इनकी व्युत्पत्ति बतलानेवाले जो कई प्रवाद प्रचलित हैं, जैसे ' तेरह प्रकारके चारित्रको जो पाले वह तेरहपंथी' और 'हे भगवान् यह तेरा पन्थ है,' आदि, उनमें कोई तथ्य नहीं मालूम होता और न उनसे असलियत पर 1 १ आचार्य मलिषेणने भैरवपद्मावती कल्प, ज्वालामालिनी कल्प, विद्यानुवाद आदि कई मंत्रशास्त्र विषयक ग्रन्थ लिखे हैं | श्रवणबेलगोलके श० सं० २०३७ के लेख नं० ४७ में त्रैकाल्ययोगी नामक जैन मुनिके विषयमें लिखा है कि उनके प्रभाव से ब्रह्मराक्षस शिष्य हो गया था और उनके स्मरण मात्रसे ग्रह-बाधा नष्ट हो जाती थी । करंजका तेल उनके प्रभाव से घी बन गया था ! २ शतपदीके विस्तृत उद्धरण और अनुवाद जेनहितैषी भाग ७, अंक ९ में देखिए | स्थानाभाव से यहाँ नहीं दिये जा सके ।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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