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वनवासी और चैत्यवासी सम्प्रदाय
भगवती आराधनाके अभिप्राय के अनुकूल माना है ।
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'कुशील' मुनिकी अपेक्षासे ठीक
इसके बाद तो वस्त्र धारण में बाहर जाने के समय की और शीतादिकी भी कोई शर्त नहीं रही, उनका खूब छूटसे उपयोग होने लगो, गद्दे तकिये भी आ गये और पालकी नालकी, छत्र-चँवर आदि राजसी ठाठ भी परम दिगम्बर मुनियोंने स्वीकार कर लिये !
दिगम्बर चैत्यवासियोंके अन्य आचरण
श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रने चैत्यवासियोंके चरित्रका जो खाका अपने 'संबोध प्रकरण' में खींचा है और जिसे हम ऊपर दे चुके हैं, लगभग वही चरित्र, हम दिगम्बर साधुओं में भी पाते हैं, दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं जान पड़ता ।
पूर्वोक्त शतपदी के कथनानुसार उस समय दिगम्बर साधु मठों में रहते थे, अपने लिये पकाया हुआ ( उद्दिष्ट ) भोजन करते थे, एक स्थानमें महीनों रहते थे, चटाई योगपट्ट आदिका यदा कदा उपयोग करते थे, योगपट्टको धोबीसे घुलाते और रँगाते भी थे । शीतकाल में अँगीठीका सहारा लेते थे, पयालके बिछौनेपर सोते थे, तेलकी मालिश कराते थे, सर्दीक मारे जिनमन्दिरके गूढ़ मंडप ( गर्भालय ) में रहते थे, और गृहस्थोंके बरते हुए पटी-द्विपटी ( घोती दुपट्टा ), बोरक (?) रल्लिक (?) आदि ओढ़ते थे । घासकी लँगोटी लगाते थे, पीतल, ताँबे, लोहेके कमण्डलु रखते थे, कपड़े के जूते पहिनते थे, खदिर-बटी आदि तरह तरहकी ओषधियाँ रखते थे, स्त्रियोंसे चरण प्रक्षालन कराते थे, आर्यिकाओंके साथ एक ही निवास में रहते थे, उनसे भोजन बनवाते थे, सुखासन पालकीपर चढ़ते थे, ज्योतिष,
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१ वि० सं० १४७८ में वासुपूज्यऋपिने 'दान - शासन' नामका एक ग्रन्थ बनाया है उसमें लिखा है कि श्रावकों को चाहिए कि वे मुनियोंको दूध, दही, छाछ, घी, शाक, भोजन, आसन और नई बिना फटी टूटी चटाई और नये वस्त्र दें
दुग्धश्रीघनतक्राज्यशाकभक्ष्यासनादिकं ।
नवीनमव्ययं दद्यात्पात्राय कटमम्बरम् ॥
२ वि० सं० १९४५ के दुबकुण्डके दान-पत्र में मुनिजनोंके शरीराभ्यंजन ( तैल-मर्दन ) के. लिए दानकी व्यवस्था की गई है । इस दान-पत्रका उल्लेख पहले किया जा चुका है I