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महाकवि पुष्पदन्त
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जाता है । अभिमानमेरु, अभिमान-चिह्न, काव्यरत्नौकर, कविकुलतिलक, सरस्वतीनिलय, कव्वपिसैल्ल ( काव्यपिशाच या काव्यराक्षस ) ये उनकी पदवियाँ थीं । यह पिछली पदवी बड़ी अद्भुत-सी है; परन्तु इसका उन्होंने स्वयं ही प्रयोग किया है । शायद अपनी महती कवित्वशक्तिके कारण ही यह पद उन्होंने पसन्द किया हो । 'अभिमानमरु' पद उनके स्वभावको भी व्यक्त करता है । वे बड़े ही स्वाभिमानी थे । महापुराणकी उत्थानिकासे मालूम होता है कि जब वे खलजनों१ (क) तं सुणेवि भणइ अहिमाणमेरु । -म० पु० १-३-१२
(ख) कं यास्यस्यभिमानरत्ननिलयं श्रीपुष्पदन्तं विना ।-म० पु० सं० ४५ (ग) णण्णहा मंदिरि णिवसंतु संतु, अहिमाणमेरु गुणगणमहंतु ।
-ना० कु० १-२-२ २ वयसंजुत्तिं उत्तमसत्तिं वियलियसंकि अहिमाणंकिं ।-य० च० ४-३१-३ ३ भो भो केसवतणुरुह णवसररुहमुह कव्वरयणरयणायर । म० पु० १-४-१० ४-५ (क) तं णिसुणे वि भरहें वुत्तु ताव, भो कइकुलतिलय विमुक्कगाव ।
-म० पु. १-८-१ (ख) अग्गइ कइराउ पुष्फयंतु सरसइणिलउ।
देवियहि सरूउ वण्णइ कइयणकुलतिलउ । ---य० च० १-८-१५ ६ (क) जिणचरणकमलभत्तिल्लएण, ता जंपिउ कव्वपिसल्लएण।
--म० पु० १-८-८ (ख) बोल्लाविउ कइकव्वपिसल्लउ, कि तुहुं सच्चउ वप्प गहिल्लउ।
-म० पु० ३८-३-५ (ग) णणस्स पत्थणाए कव्वपिसल्लएण पहसियमुहेण । -ना० अन्तिम पद्य
........... 'महि परिभमंतु मेलाडिणयरु । अवहेरियखलयणु गुणमहंतु, दियहेहिं पराइउ पुष्फयंतु । गंदणवीण किर वीसमइ जाम, तहिं विणि पुरिस संपत्त ताम । पणवेप्पिणु तेहिं पवुत्तु एव, भो खंड गलियपावावलेव । परिभमिरभमररवगुमगुमंति, किं किर णिवसहि णिजणवणंति । करिसरबहिरियदिचक्कवालि, पइसरहि ण किं पुरवीर विसालि । तं सुणिवि भणइ अहिमाणमेरु, वर खजइ गिरिकंदरि कसेरु ।